निर्जरा है । (ताहि) उस निर्जराको (सदा) सदैव (आचरिये) प्राप्त
करना चाहिये ।
दोषरूप मिथ्याभावोंका अभाव करना चाहिये । स्पर्शोंके साथ
पुद्गलोंका बन्ध, रागादिके साथ जीवका बन्ध और अन्योन्यअवगाह
रूप पुद्गल-जीवात्मक बन्ध कहा है । (प्रवचनसार गाथा १७७)
रागपरिणाम मात्र ऐसा जो भावबन्ध है वह द्रव्यबन्धका हेतु होनेसे
वही निश्चयबन्ध है जो छोड़ने योग्य है ।
ऐसे कषायके अभावको शम कहते हैं और दम अर्थात् जो ज्ञेय-
ज्ञायक, संकर दोष टालकर, इन्द्रियोंको जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा
अन्य द्रव्यसे अधिक (पृथक् परिपूर्ण) आत्माको जानता है, उसे
निश्चयनयमें स्थित साधु वास्तवमें–जितेन्द्रिय कहते हैं । (समयसार
गाथा–३१)
इन्द्रिय-दमन कहते हैं; परन्तु आहारादि तथा पाँच इन्द्रियोंके
विषयरूप बाह्य वस्तुओंके त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे
वास्तवमें इन्द्रिय-दमन नहीं होता; क्योंकि वह तो शुभराग है, पुण्य
है, इसलिये बन्धका ही कारण है–ऐसा समझना ।