संवर है । प्रथम निश्चयसम्यग्दर्शन होने पर स्वद्रव्यके
आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है । क्रमशः जितने
अंशमें रागका अभाव हो, उतने अंशमें संवर-निर्जरारूप धर्म होता
है । स्वोन्मुखताके बलसे शुभाशुभ इच्छाका निरोध सो तप है । उस
तपसे निर्जरा होती है ।
(४) संवर :–पुण्य-पापरूप अशुद्धभाव (आस्रव)को आत्माके
शुद्धभाव द्वारा रोकना सो भावसंवर है और तदनुसार नवीन
कर्मोंका आना स्वयं-स्वतः रुक जाये सो द्रव्यसंवर है ।
(५) निर्जरा :– अखण्डानन्द निज शुद्धात्माके लक्षसे
अंशतः शुद्धिकी वृद्धि और अशुद्धिकी अंशतः हानि करना सो
भावनिर्जरा है और उस समय खिरने योग्य कर्मोंका अंशतः छूट
जाना सो द्रव्यनिर्जरा है ।
(लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका पृष्ठ ४५-४६ प्रश्न १२१)
(६) जीव-अजीवको उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा
परको यथावत् मानना, आस्रवको जानकर उसे हेयरूप, बन्धको
जानकर उसे अहितरूप, संवरको पहिचानकर उसे उपादेयरूप
तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हितका कारण मानना चाहिये✽
(मोक्षमार्ग प्रकाशक. अध्याय ९, पृष्ठ ४६९)
✽आस्रव आदिके दृष्टांत–
(१) आस्रव– जिस प्रकार किसी नौकामें छिद्र हो जानेसे उसमें पानी
आने लगता है; उसी प्रकार मिथ्यात्वादि आस्रवके द्वारा आत्मामें
कर्म आने लगते हैं ।
(२) बंध– जिस प्रकार छिद्र द्वारा पानी नौकामें भर जाता है; उसीप्रकार
कर्मपरमाणु आत्माके प्रदेशोंमें पहुँचते हैं (एक क्षेत्रमें रहते हैं) ।
तीसरी ढाल ][ ६९