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चिद्दविलास
ज्ञानगुणनुं स्वरुप
हवे ज्ञानगुणनुं स्वरूप कहीए छीए. ज्ञान जाणपणुं ए रीते
निर्विकल्प छे, ते स्वज्ञेयने जाणे छे; ते परज्ञेयोने जाणवामां, ज्ञान
निश्चयथी जाणे तो ज्ञान जड थाय – तादात्म्यवृत्तिथी एक थई जाय; तेथी
निश्चयथी तो न जाणे, उपचारथी जाणे तो सर्वज्ञता कई रीते [बने]?
जो उपचारमात्र तो जूठो छे तो सर्वज्ञ[पणुं] जूठुं थाय, ते न बने.
तेनुं समाधाान : – जेम अरीसामां घडो – वस्त्र वगेरे देखाय छे,
त्यां जे ‘देखवुं’ ते तो उपचार दर्शन नथी, [ तेम ज्ञान] ज्ञेयोने प्रत्यक्ष
देखे छे ते तो जूठुं नथी; परंतु आटलुं विशेष छे के उपयोग ज्ञानमां
स्व – परप्रकाशक शक्ति छे, ते पोताना स्वरूप – प्रकाशनमां निश्चळ
व्याप्य – व्यापक वडे लीन थयेलो अखंड प्रकाश छे; परनुं प्रकाशन तो छे,
परंतु व्यापकरूप एकता नथी [अर्थात् परने जाणतां ज्ञान पर साथे
एकमेक थतुं नथी], तेथी उपचार संज्ञा थई. वस्तुशक्ति उपचार नथी१
ए वात विशेष लखीए छीएः –
कोई एक मिथ्यावादी एम माने छे के ज्ञेयोनुं जाणपणुं छे ते
ज अशुद्धता छे, ज्यारे ते मटशे त्यारे अशुद्धता मटशे२ परंतु एम तो
नथी, केमके ज्ञान विषे एवी स्व – परप्रकाशकता पोताना सहज भावथी
छे, ते अशुद्धभाव नथी. अरूपी आत्मप्रदेशोनो प्रकाश लोक – अलोकना
आकाररूप थईने मेचक उपयोग [अनेकाकार उपयोग] थयो छे. आ
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१. जुओ, समयसार गा. ३५६ थी ३६५ उपर जयसेनाचार्यनी टीकामां
पृ. ४६६ – ४६७.
२. जुओ, समयसार कलश – २५१;