दर्शन गुणनुं स्वरूप[ २१
शक्तिनो अभाव थाय (परंतु आगममां) ते सर्वदर्शित्व शक्ति कही छे.
सिद्धांतनुं एवुं वचन छे के ‘विश्वविश्वसामान्यभावपरिणामात्मदर्शनमयी
सर्वदर्शित्वशक्तिः’१ [समस्त विश्वना सामान्य भावने देखवारूपे (अर्थात्
सर्व पदार्थोना समूहरूप लोकालोकने सत्तामात्र ग्रहवारूपे) परिणमेला
एवा आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति] आम समयसारना उपन्यास
[ – परिशिष्ट]मां कह्युं छे.
अहीं कोई प्रश्न करे छे के – दर्शनने निराकार कह्युं [परंतु]
सर्वदर्शित्व शक्तिमां तो सर्वज्ञेयोने देखवाथी [ते] निराकार न रह्युं?
तेनुं समाधान – गोम्मटसारजी (जीवकांड)मां कह्युं छे केः –
भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं ।
वण्णणहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि ।।४८३।।
[अर्थ : – जीवद्वारा जे सामान्यविशेषात्मक पदार्थोनी स्वपरसत्तानुं
निर्विकल्परूपे अवभासन थाय छे तेने दर्शन कहे छे.]
टीका : – ‘‘भावानां सामान्यविशेषात्मकपदार्थानां यत्स्वरूपमात्र
विकल्परहितं यथा भवति तथा जीवेन सह स्वपरसत्तावभासनं तद्दर्शन भवति ।
पश्यति दृश्यते अनेन दर्शनमात्र वा दर्शनं’’ —
आ कथनमां, सामान्य विशेषमय सर्व पदार्थोनुं स्वरूप मात्र,
विकल्परहित, जीव सहित स्व-परनुं भासवुं (तेने) दर्शन कहीए. आ
कथनमां, बन्ने सिद्ध थया. निराकार तो विकल्परहित स्वरूपमात्रना
ग्रहणमां सिद्ध थयुं. सर्वदर्शी(त्व) सर्व पदार्थना ग्रहणमां सिद्ध थयुं;
तेथी आ कथन प्रमाण छे.
आ कथनमां आ विवक्षा लेवी के पोतानुं स्वरूपमात्र (ते) स्व
लेवुं, ते ज सामान्य थयुं माटे ए लेवुं, अने गुणपर्यायना भेदरूप पर
कहेतां निर्विकल्प स्वरूपथी बीजो भेद ते ज विशेष थयुं आवुं सामान्य –
१. गुज० समयसार पृ. ५०४