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चिद्दविलास
सामान्य – विशेषनुं स्वरुप
सामान्य – विशेषनुं स्वरूप लखीए छीएः —
‘वस्तु’ एम (कहेवुं ते) वस्तुनुं सामान्य (कथन) छे अने
‘सामान्यविशेषात्मकं वस्तु’ १(अर्थात् वस्तु सामान्य विशेषस्वरूप छे) –
एम कहेवुं ते वस्तुनुं विशेष कथन छे. अस्ति ते सत् एम कहेवुं
ते सामान्य सत् छे, अने (परथी) नास्ति अभाव (रूप) सत् एम
कहेवुं ते विशेष सत् छे. देखवामात्र दर्शन – ए सामान्य दर्शन छे
अने स्व-पर सकल ज्ञेयोने देखे ते विशेष दर्शन छे. जाणवामात्र
ज्ञान सामान्य (ज्ञान) छे, स्व-पर सकल ज्ञेयोने जाणे ते ज्ञानने
विशेष कहीए. आ प्रमाणे सर्वे गुणोमां सामान्य-विशेष छे. सामान्य
विशेष वडे वस्तु प्रगटे छे; ते कहीए छीएः – (वस्तुने) जो
सामान्य ज कहीए तो विशेष विना वस्तुना गुणो जाणवामां आवे
नहि. गुण विना वस्तु न जणाय; माटे सामान्यने विशेष प्रगट करे
छे, सामान्य न होय तो विशेष क्यांथी होय? विशेषने सामान्य
प्रगट करे छे; तेथी सामान्य – विशेषमय वस्तु छे.
अहीं कोई प्रश्न करे छे के – सामान्य तो अन्वयशक्तिने
कहीए, विशेष व्यतिरेक शक्तिने कहीए – एम कह्युं छे, ते कई रीते
छे?
तेनुं समाधाान : – अन्वयशक्ति युगपत् सदा पोताना
स्वभावरूप रहे छे, तेमां कोई विशेष नथी; पोताना स्वभावना
भावमां जे दशा छे ते ज छे, (ते) निर्विकल्प अबाधित छे.
१. जुओ, प्रवचनसार गा. ११४ टीका. आलापपद्धति पृ. ८६