निश्चय[ ४९
(२) वळी, जे जे गुण जे जे स्वरूपने धारण करीने ऊपज्या
छे ते सर्वे पोतपोताना रूपने धरे; गुण बीजा गुणोथी पोताना जुदा
रूपे अनादि अनंत रहे छे. – आवुं जे जुदुं रूप तेने निज जाति कहीए.
पोताथी पोते अनादि निधन छे, ते रूप कोई बीजा – कोई रूप – साथे न
मळे. वळी, जे रूप ते ज गुण, जे गुण ते ज स्वरूप – आवुं जे छे
(ते) तादात्म्य लक्षण (छे). वळी जो कोई ते रूप नास्ति चिंतवे तो
(तेणे) गुणनी नास्ति चिंतवी. ए प्रमाणे जे पोतपोतानुं रूप छे, ते
रूपने निज जाति – स्वभावरूप कहीए, एवा निजरूपने निश्चय संज्ञा
कहीए.
(३) वळी, अनंत गुणोना एक पुंजभावने देखवो, पण (गुणने)
जुदा न देखवा; तेम ज अनंत शक्ति वडे जे गुण छे ते एक गुणने
ज देखवो, ते शक्तिने ज न देखवी; तथा जघन्य उत्कृष्ट एवा भेद न
देखवा, ते शक्तिने एकने ज देखवी-आवुं जे अभेद दर्शन – एक ज
रूपनुं दर्शन – छे तेने पण अभेददर्शन (रूप) निश्चय संज्ञा कहीए.
(४) वळी, हे संत! गुणना पुंज विषे तो कोई (जुदो) गुण
नथी – ए वात तो निःसंदेह छे – एम ज छे; परंतु ते भावनो ते गुण
छे, द्रव्य-गुण-पर्यायने धारण करीने परिणाम वडे परिणमे छे. ते भाव
ते गुण – परिणामथी जुदो नथी, परंतु ते ज भावरूप थईने परिणमे छे;
(ते अहीं कहीए छीए)ः – जेम पुद्गल वस्तु विषे स्कंध-कर्म-विकार
कोई गुण तो नथी, परंतु ते पुद्गल वस्तुना परिणाम ते स्कंध-कर्म-
विकार भावरूप स्वांग धरीने परिणमे छे. बीजा कोई द्रव्यना परिणाम
ए (स्कंध – ) कर्म-विकार भावने धारण करीने परिणमता नथी, पण आ
एक पुद्गल ज ते स्वांग धारण करीने वर्ते छे – ए निःसंदेह छे. एवी
ज रीते आ जीव वस्तुना परिणाम (पण) रंजक (मलिन), संकोच –
विस्तार, अज्ञान, मिथ्यादर्शन, अविरति आदि चेतन-विकाररूपे थईने
परिणमे छे; एवो चेतनविकारभाव तो ते चेतनद्रव्यना परिणाम विषे