निज शुद्धात्मद्रव्यसामान्यनो आश्रय करवाथी ज अतीन्द्रिय आनंदमय स्वानुभूति प्राप्त थाय छे. २७५.
हुं आत्मा शुद्ध छुं, अशुद्ध छुं, बद्ध छुं, मुक्त छुं, नित्य छुं, अनित्य छुं, एक छुं, अनेक छुं इत्यादि प्रकारो वडे जेणे प्रथम श्रुतज्ञान वडे ज्ञानस्वभावी निज आत्मानो निर्णय कर्यो छे एवा जीवने, तत्त्वविचारना रागनी जे वृत्ति ऊठे छे ते पण दुःखदायक छे, आकुळतारूप छे. तेवा अनेक प्रकारना श्रुतज्ञानना भावने मर्यादामां लावतो, हुं आवो छुं ने तेवो छुं — एवा विचारने पुरुषार्थ द्वारा रोकतो, पर तरफ वळता उपयोगने स्व तरफ खेंचतो, नयपक्षना आलंबनथी थतो जे रागनो विकल्प तेने आत्माना स्वभावरसना भान द्वारा टाळतो, श्रुतज्ञानने पण जे आत्मसन्मुख करे छे ते, ते वखते अत्यंत विकल्परहित थईने तत्काळ निजरसथी प्रगट थता, आदि-मध्य-अन्त रहित आत्माना परमानंदस्वरूप अमृतरसने वेदे छे. २७६.
जीव परद्रव्यनी क्रिया तो करतो नथी, परंतु विकारकाळे पण स्वभाव-अपेक्षाए निर्विकार रहे छे,