Gurudevshreena Vachanamrut-Gujarati (Devanagari transliteration). Bol: 286.

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गुरुदेवश्रीनां वचनामृत
१५५

असत्य आवे. अज्ञानी गमे त्यां जाय के गमे त्यां ऊभो होय पण ‘हुं जाणुं छु’, ‘हुं समजुं छु’, ‘आना करतां हुं वधारे छुं’, आनां ‘करतां मने वधारे आवडे छे’ वगेरे भाव तेने आव्या वगर रहेता नथी. अज्ञानीमां साक्षीपणे रहेवानी ताकात नथी.

ज्ञानीने गमे ते भावमां, गमे ते प्रसंगमां साक्षीपणे रहेवानी ताकात छे; बधा भावोनी वच्चे पोते साक्षीपणे रही शके छे. अज्ञानीने ज्यां होय त्यां ‘हुं अने ‘मारुं कर्युं थाय छे’ एवो भाव आव्या वगर रहेतो नथी. ज्ञानी बधेथी ऊठी गयो छे अने अज्ञानी बधे चोंट्यो छे. २८५.

आत्मानुं प्रयोजन सुख छे. दरेक जीव सुख इच्छे छे ने सुखने ज माटे झावां नाखे छे. हे जीव! तारा आत्मामां सुख नामनी शक्ति होवाथी आत्मा ज स्वयं सुखरूप थाय छे. आत्मानुं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्रए त्रणे सुखरूप छे. आत्मानो धर्म सुखरूप छे, दुःखरूप नथी. हे जीव! तारी सुख- शक्तिमांथी ज तने सुख मळशे, बीजे क्यांयथी तने सुख नहि मळे; केम के तुं ज्यां छो त्यां ज तारुं सुख छे. तारी सुखशक्ति एवी छे के ज्यां दुःख कदी