सम्पूर्णरत्नत्रयात्मनात्मना क्क सति, अभावे शक्तिरूपतया विनाशे । कस्य, कृत्स्नकर्मणः –
कृत्स्नस्य सकलस्य द्रव्यभावरूपस्य कर्मणः आत्मपारतंत्र्यनिमित्तस्य ।।१।।
अथ शिष्यः प्राह – स्वस्य स्वयं स्वरूपोपलब्धिः कथमिति ? स्वस्यात्मनः – स्वयमात्मना
केवलज्ञानस्वरूप आत्माको जो कि मुख्य एवं अप्रतिहत अतिशयवाला होनेसे समस्त
सांसारिक प्राणियोंसे उत्कृष्ट है, नमस्कार हो ।।१।।
‘‘स्वयं स्वभावाप्तिः’’ इस पदको सुन शिष्य बोला — कि ‘‘आत्माको स्वयं ही
सम्यक्त्व आदिक अष्ट गुणोंकी अभिव्यक्तिरूप स्वरूपकी उपलब्धि (प्राप्ति) कैसे (किस
उपायसे) हो जाती है ? क्योंकि स्व-स्वरूपकी स्वयं प्राप्तिको सिद्ध करनेवाला कोई दृष्टान्त
ए रीते आराध्यनुं (परमात्मानुं) स्वरूप कहीने तेनी प्राप्तिनो उपाय कहे छे —
जेमने थई. शुं ते? स्वभावनी प्राप्ति — अर्थात् स्वभावनी एटले निर्मळ निश्चल
चिद्रूप – तेनी प्राप्ति-लब्धि, कथंचित् तादात्म्य परिणति; कृतकृत्यपणाने लीधे स्वरूपमां
अवस्थिति – एवो अर्थ छे. शा वडे? स्वयं संपूर्ण रत्नत्रयात्मक आत्मा वडे. शुं थतां?
अभाव थतां अर्थात् शक्तिरूपपणे विनाश थतां. कोनो? संपूर्ण कर्मनो – अर्थात् आत्मानी
परतंत्रताना निमित्तभूत द्रव्य – भावरूप समस्त कर्मोनो.
भावार्थ : – सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी पूर्णता वडे आत्मानी परतंत्रताना कारणभूत
समस्त कर्मोनो – ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मोनो राग-द्वेषादि भावकर्मोनो अने शरीरादि
नोकर्मोनो – जेमने सर्वथा अभाव छे अने जेमणे पोताना चिदानंद, विज्ञानघन, निर्मळ,
निश्चल, टंकोत्कीर्ण ज्ञायकरूप स्वभावने प्राप्त कर्यो छे; तेवा पोताना आराध्य सिद्ध
परमात्माने आचार्ये नमस्कार कर्या छे.
अष्टकर्मरहित, अष्टगुणसहित, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन परमात्मा ते आराधकने माटे
संपूर्णतानो आदर्श छे. ते आदर्शने पोतानामां मूर्तिमंत करवो ते नमस्कार करवानो हेतु छे.
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते ज सिद्धस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय छे. एम
आचार्ये गर्भितपणे आ श्लोकमां दर्शाव्युं छे. १.
हवे शिष्य कहे छे, — ‘‘पोताने स्वयं स्वरूपनी प्राप्ति केवी रीते थाय? पोताना
आत्माने स्वयं एटले आत्मा वडे स्वरूपनी अर्थात् सम्यक्त्वादि आठ गुणोनी
अभिव्यक्तिरूप (प्रगटतारूप) उपलब्धि (प्राप्ति) केवी रीते एटले क्या उपाय वडे थाय
छे? कारण के द्रष्टान्तनो अभाव छे.’’
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
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