स्वरूपस्य सम्यक्त्वादिगुणाष्टकाभिव्यक्तिरूपस्य उपलब्धिः कथं केनोपायेन दृष्टान्ताभावादिति ?
आचार्यः समाधत्ते —
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योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता ।
द्रव्यादि-स्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता ।।२।।
टीका — मता अभिप्रेता लोकैः । कासौ ? स्वर्णता सुवर्णभावः । कस्य, दृषदः
शिष्यने पूछवानो आशय ए छे के स्व – स्वरूपनी स्वयं प्राप्तिने सिद्ध करे, तेवा
द्रष्टान्तनो अभाव छे, तो द्रष्टांत विना ‘स्वयं स्वभावाप्ति’ — ए कथनने साचुं केवी रीते
मानी शकाय?
आचार्य तेनुं समाधान करे छे —
योग्य उपादाने करी, पत्थर सोनुं थाय,
तेम सुद्रव्यादि करी, जीव शुद्ध थई जाय. २
अन्वयार्थ : – [यथा ] जेम [योग्योपादानयोगेन ] योग्य उपादान (कारण)ना योगथी
[दृषदः ] पाषाणने (सुवर्ण पाषाणने) [स्वर्णता ] सुवर्णपणुं [मता ] मानवामां आव्युं छे,
[तथा ] तेम [आत्मनः अपि ] आत्माने पण [द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तौ ] सुद्रव्य-क्षेत्रादि वा स्वद्रव्य-
क्षेत्रादिनी सम्पत्ति होतां [आत्मता ] आत्मपणुं अर्थात् निर्मळ निश्चल चैतन्यभाव [मता ]
मानवामां आव्यो छे.
टीका : – लोको माने छे — अभिप्राय धरावे छे. शुं ते (माने छे)? स्वर्णता –
सुवर्णभाव. कोने (माने छे)? पाषाणने अर्थात् जेमां सुवर्ण प्रगट थवानी योग्यता छे तेवा
नहीं पाया जाता है, और बिना दृष्टान्तके उपरिलिखित कथनको कैसे ठीक माना जा सकता
है ? आचार्य इस विषयमें समाधान करते हुए लिखते हैं कि —
स्वर्ण पाषाण सुहेतु से, स्वयं कनक हो जाय ।
सुद्रव्यादि चारों मिलें, आप शुद्धता थाय ।।२।।
अर्थ — योग्य उपादान कारणके संयोगसे जैसे पाषाणविशेष स्वर्ण बन जाता है, वैसे
★जइसोहण जोएणं सुद्धं हेमं हवइ जह तह य ।
कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ।।२४।।( — मोक्षपाहुड)
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इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-