उपादानशक्तिथी ज परमात्मा बने छे.
विशेष
निज उपादानथी ज कार्य थाय छे. ते संबंधमां समाधितंत्र श्लोक (९९)नी टीकामां
टीकाकार लखे छे के — ‘‘.....परमार्थे स्वतः ज (पोतानी मेळे ज) — आत्माथी ज
(परमात्मपदनी प्राप्ति थाय छे) पण गुरु आदि बाह्य निमित्तो वडे नहि...’’
प्रस्तुत श्लोकमां ‘स्वतः एव’ शब्दो घणा अर्थसूचक छे. ते बतावे छे के परमात्मानी
प्राप्ति, पोतानाथी ज पोतानामांथी ज पोताना पुरुषार्थथी ज थाय छे. तेमां तीर्थंकर भगवान
आदिनी दिव्यध्वनि, गुरुनो उपदेशादि बाह्य निमित्तो होवा छतां ते निमित्तोथी निरपेक्षपणे
परमपदनी प्राप्ति थाय छे.
निमित्त होवा छतां, निमित्तथी निरपेक्ष उपादाननुं परिणमन होय छे. विकारी अने
अविकारी पर्याय संबंधमां जयधवल पुस्तक ७मां कह्युं छे के —
वज्झकारणणिरवेक्खे वथ्थुपरिणामो।
वस्तुनुं परिणाम बाह्य कारणोथी निरपेक्ष होय छे.(पृ. ११७ – पेरा २४४)
उपादान वस्तुनी सहज शक्ति छे अने निमित्त तो संयोगरूप कारण छे. कार्य पोताना
उपादानमांथी ज थाय. ते वखते तेने अनुकूळ निमित्त होय ज. तेने शोधवानी या तेने भेगुं
करवानी व्यग्रतानी जरूर होय ज नहि. २
पछी शिष्य कहे छे, ‘‘भगवान्! तो व्रतादि निरर्थक ठरशे. जो सुद्रव्यादिरूप सामग्री
होतां ज आ (संसारी) आत्मा पोताना आत्मस्वरूपने प्राप्त करशे, तो व्रतो एटले
हिंसाविरति जेनी आदिमां छे ते समिति आदि निरर्थक-निष्फळ बनशे, कारण के (आपना
कथनानुसार) वांछित स्वात्मानी उपलब्धि (प्राप्ति) सुद्रव्यादि – सम्पत्तिनी अपेक्षा राखे छे –
एवो अर्थ छे ( – अर्थात् स्वद्रव्यादि स्वचतुष्टयरूप सामग्रीथी ज स्वस्वरूपनी उपलब्धि थई
शंका — इस कथनको सुन शिष्य बोला कि भगवन् ! यदि अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भावरूप सामग्रीके मिलनेसे ही आत्मा स्व स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, तब फि र व्रत समिति
कार्योपयोगित्वं द्रव्यादिस्वादीनां सम्पत्तिः संपूर्णता, तस्यां सत्याम् ।।२।।
अथ शिष्यः प्राह — तर्हि व्रतादीनामानर्थक्यमिति । भगवन् ! यदि सुद्रव्यादिसामग्रयां
सत्यामेवायमात्मा स्वात्मानमुपलप्स्यते तर्हि व्रतानि हिंसाविरत्यादीनि आदयो येषां समित्यादीनां
६ ]
इष्टोपदेश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-