‘ना, इत्यादि.’ ते सारुं नथी. शुं ते? पद. केवुं (पद)? नरक संबंधी (पद) शा
वडे (प्राप्त थयेलुं), अव्रतोथी अर्थात् हिंसादि परिणामथी उत्पन्न थयेला पापो वडे (प्राप्त
थयेलुं) [‘बत’ शब्द खेद – कष्टना अर्थमां छे] ‘अरे! तो व्रत अने अव्रत जेनुं निमित्त छे
तेवां देव अने नारक ए बे पक्षोमां समानता आवशे.’ एवी (शिष्यनी) आशंका थतां ‘ते
बंनेमां तफावत छे,’ एम छाया इत्यादि द्रष्टान्त द्वारा प्रगट करी (आचार्य) कहे छे —
कोण ते? भेद – अन्तर. केवो? महान – मोटो, कोण बेउ वच्चे? बे पथिको वच्चे. शुं करता?
पोताना कार्यना अंगे नगरमां गयेला अने त्यांथी पाछा आवता पोताना त्रीजा साथीनी
मार्गमां प्रतीक्षा करता – राह जोता. ते बन्ने केवा होई? छाया अने तापमां बेठेला होई.
[छाया अने आतप – ते छायातप, तेमां बेठेला]. एनो अर्थ आ प्रमाणे छेः — त्रीजा
(साथीना) आगमनकाल सुधी, जेम छायामां बेठेलो (पथिक) सुखेथी बेसे छे अने तापमां
बेठेलो (पथिक) दुःखथी बेसे छे, तेम ज्यां सुधी सुद्रव्यादि मुक्तिनां कारणो प्राप्त थाय,
त्यां सुधी व्रतादि आचरण करनार ते आत्मा – जीव स्वर्गादि स्थानोमां सुखथी रहे छे अने
बीजो (अव्रतादि आचरनार) नरकादि स्थानोमां दुःखथी रहे छे.
भावार्थ : — जेम छायामां बेसी पोताना मित्रनी राह जोनार मुसाफर सुखी थाय
छे अने तडकामां बेसी तेनी राह जोनार बीजो मुसाफर दुःखी थाय छे, तेम सम्यग्द्रष्टि
जीव ज्यारे निर्विकल्प दशामां रही शकतो नथी, त्यारे तेने हेयबुद्धिए व्रतादिपालननो
शुभभाव आवे छे अने ते शुभभावना निमित्ते ते स्वर्गादिस्थानोमां सुख भोगवे छे.
सम्यग्द्रष्टिने नरकमां जवा जेवा भाव थता ज नथी; परंतु हिंसादि अव्रतना अशुभ भाव
छायेत्यादि । भवति । कोऽसौ ? भेदः अन्तरं । किंविशिष्टो ? महान् बृहन् । कयोः ?
पथिकयोः । किं कुर्वतोः ? स्वकार्यशान्नगरांतर्गतं तृतीयं स्वसार्थिकमागच्छन्तं पथि प्रतिपालयतोः
प्रतीक्षमाणयोः । किंविशिष्टयोः सतोः ? छायातपस्थयोः छाया च आतपश्च छायातपौ तयोः
स्थितयोः । अयमर्थो यथैव छायास्थितस्तृतीया गमनकालं यावत्सुखेन तिष्ठति आतपस्थितश्च
विशदार्थ — अपने कार्यके वशसे नगरके भीतर गए हुए तथा वहाँसे वापिस
आनेवाले अपने तीसरे साथीकी मार्गमें प्रतीक्षा करनेवाले, जिनमेंसे एक तो छायामें बैठा
हुआ है और दूसरा धूपमें बैठा हुआ है – दो व्यक्तियोंमें जैसे बड़ा भारी अन्तर है, अर्थात्
छायामें बैठनेवाला तीसरे पुरुषके आने तक सुखसे बैठा रहता है, और धूपमें बैठनेवाला
दुःखके साथ समय व्यतीत करता रहता है । उसी तरह जब तक मुक्तिके कारणभूत अच्छे
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिक प्राप्त होते हैं, तब तक व्रतादिकोंका आचरण करनेवाला
कहान जैनशास्त्रमाळा ]
इष्टोपदेश
[ ९