96 ]
iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
अत्र स्वयमेव प्रतिषेधमनुध्यायति तन्नेति यतः —
टीका — मोहादविद्यावेशवशादनादिकालं कर्मादिभावेनोपादाय सर्वे पुद्गलाः मया
संसारिणा जीवेन वारंवारं पूर्वमनुभूताः पश्चाच्च नीरसीकृत्य त्यक्ताः यतश्चैवं तत् उच्छिष्टेष्विव
भोजनगन्धमाल्यादिषु स्वयं भुक्त्वा त्यक्तेषु यथा लोकस्य तथा मे सम्प्रति विज्ञस्य
तत्त्वज्ञानपरिणतस्य तेषु फे लाकल्पेषु पुद्गलेषु का स्पृहा ? न कदाचिदपि । वत्स ! त्वया
मोक्षार्थिना निर्ममत्वं विचिन्तनीयम् ।
anvayArtha : — [मोहात् ] mohathI [सर्वे अपि ] badhAy [पुद्गलाः ] pudgalo [मुहुः ]
vAramvAr [मया भुक्तोज्झिताः ] men bhogavyAn ane chhoDI dIdhAn. [उच्छिष्टेषु इव तेषु ] uchchhiShTa
(enThA) jevA te padArthomAn [अद्य ] have [मम विज्ञस्य ] mArA jevA bhedagnAnIne [का स्पृहा ]
shI spRuhA (chAhanA) hoy? (arthAt e bhogonI mane have ichchhA nathI).
TIkA : — mohathI arthAt avidyAnA Aveshavash anAdikAlathI men – sansArI jIve
sarva pudgalone karmAdibhAve grahaN karIne vAramvAr pahelAn bhogavyAn ane pachhI temane nIras
karIne chhoDI dIdhAn. jo em chhe to svayam bhogavIne chhoDI dIdhelA uchchhiShTa (enThA) jevAn
bhojan, gandh, mAlAdimAn – jem lokane bhogavIne chhoDI dIdhelA (padArthomAn) spRuhA (ichchhA)
hotI nathI, – tem have tattvagnAnathI pariNat vigna (gnAnI) evA mane te uchchhiShTa (bhogavIne
chhoDI dIdhelAn) jevA pudgalomAn shI spRuhA hoy? kadApi na hoy, vatsa! tun mokShArthI chhe
to tAre nirmamatvanI bhAvanA visheSh karavI joIe. (em svayamne sambodhe chhe.)
अर्थ — मोहसे मैंने समस्त ही पुद्गलोंको बार – बार भोगा और छोड़ा । भोग – भोगकर
छोड़ दिया । अब जूठनके लिए (मानिन्द) उन पदार्थोंमें मेरी क्या चाहना हो सकती है ?
अर्थात् उन भोगोंके प्रति मेरी चाहना-इच्छा ही नहीं है ।
विशदार्थ — अविद्याके आवेशके वशसे अनादिकालसे ही मुझ संसारीजीवको कर्म
आदिके रूपमें समस्त पुद्गलोंको बार – बार पहिले भोगा, और पीछा उन्हें नीरस (कर्मत्वादि
रहित) कर – करके छोड़ दिया । जब ऐसा है, तब स्वयं भोगकर छोड़ दिये गये जूँठन-
उच्छिष्ट भोजन, गन्ध, मालादिकोंमें जैसे लोगोंको फि र भोगनेकी स्पृहा नहीं होती, उसी
तरह इस समय तत्त्वज्ञानसे विशिष्ट हुए मेरी उन छिनकी हुई रेंट (नाक) सरीखे पुद्गलोंमें
क्या अभिलाषा हो सकती है ? नहीं नहीं, हरगिज नहीं । भैया ! जब की तुम मोक्षार्थी हो
तब तुम्हें निर्ममत्वकी ही भावना करनी चाहिए (एसा स्वयंको संबोधन क रते हैं) ।।३०।।