122 ]
iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
alAbhAdinA prashno pUchhavA mATe pAse AvatA lokone niShedh karavA mATe (manAI karavA
mATe tene nirjan sthAn mATe Adar chhe) – evo artha chhe.
dhyAnathI ja lok chamatkArI atishayo thAy chhe; tathA
‘तत्त्वानुशासन’ – shlok 87mAn kahyun chhe —
‘guruno upadesh prApta karI nirantar abhyAs karanAr dhAraNAnA sauShThavathI (potAnI
samyak ane sudraDh avadhAraN shaktinA baLathI), dhyAnanA pratyayo (lok chamatkArI atishayo)
dekhe chhe.’
tathA potAne avashya karavA yogya bhojanAdinI paratantratAnA kAraNe k – thoDunk
shrAvakAdine kahe chhe, ‘‘aho! aho A. aho e karo,’’ ityAdi kahIne te kShaNe ja te
bhUlI jAy chhe. ‘bhagavan! sho hukam chhe?’ em shrAvakAdi pUchhe chhe, chhatAn te kaI uttar
ApatA nathI.
लोकमुपसर्यन्तं निषेधुमित्यर्थः । ध्यानाद्धि लोकचमत्कारिणः प्रत्ययाः स्युः ।
तथाचोक्तम्, [तत्त्वानुशासने ] —
‘‘गुरूपदेशामासाद्य समभ्यस्यन्ननारतम् ।
घारणासौष्ठवाध्यानप्रत्ययानपि पश्यति’’ ।।८७।।
तथा स्वस्वावश्यकरणीयभोजनादिपारतन्त्र्यात्किंचिदल्पमसमग्रं श्रावकादिकं प्रति अहो इति
अहो इदं कुर्वनित्यादि भाषित्वा तत्क्षण एव विस्मरति । भगवन् ! किमादिश्यत इति श्रावकादौ
पृच्छति सति न किमप्युत्तरं ददाति ।
स्वभावसे ही जनशून्य ऐसे पहाड़ोंकी गुफा – कन्दरा आदिकोंमें गुरुओंके साथ रहना चाहता
है । ध्यान करनेसे लोक-चमत्कार बहुतसे विश्वास व अतिशय हो जाया करते हैं, जैसा
कि कहा गया है — ‘‘गुरूपदेशमासाद्य०’’
‘‘गुरुसे उपदेश पाकर हमेशा अच्छी तरह अभ्यास करते रहनेवाला, धारणाओंमें
श्रेष्ठता प्राप्त हो जानेसे ध्यानके अतिशयोंको भी देखने लग जाता है ।’’ अपने शरीरके लिये
अवश्य करने योग्य जो भोजनादिक, उसके वशसे कुछ थोड़ासा श्रावकादिकोंसे ‘‘अहो,
देखो, इस प्रकार ऐसा करना, अहो, और ऐसा, यह इत्यादि’’ कहकर उसी क्षण भूल
जाता है । भगवन् ! क्या कह रहे हो ? ऐसा श्रावकादिकोंके द्वारा पूछे जाने पर योगी कुछ
भी जवाब नहीं देता । तथा — ।।४०।।