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iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
भावकाय भव्यायेति शेषः । तस्यात्मविषयस्य शिवदानसमर्थस्य द्यौः स्वर्गः कियद्ररवर्तिनी ?
कियदूरे किंपरिमाणे व्यवहितदेशे वर्तते ? निकट एव तिष्ठतीत्यर्थः । स्वात्मध्यानोपात्तपुण्यस्य
तदेकफलत्वात् । तथा चोक्तं [तत्त्वानुशासने ] —
गुरुपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितैः ।
अनंतशक्तिरात्मायं भुक्तिं मुक्तिं च यच्छति ।।१९६।।
ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण चरमांगस्य मुक्तये ।
तद्व्यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ।।१९७।।
मोक्ष देनेमें समर्थ आत्मपरिणामके लिए स्वर्ग कितनी दूर है ? न कुछ । वह तो उसके
निकट ही समझो । अर्थात् स्वर्ग तो स्वात्मध्यानसे पैदा किये हुए पुण्यका एक फलमात्र
है । ऐसा कथन अन्य ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है । तत्त्वानुशासनमें कहा है : —
‘‘गुरुपदेशमासाद्य०’’
‘‘गुरुके उपदेशको प्राप्त कर सावधान हुए प्राणियोंके द्वारा चिन्तवन किया गया यह
अनन्त शक्तिवाला आत्मा चिंतवन करनेवालेको भुक्ति और मुक्ति प्रदान करता है । इस
आत्माको अरहंत और सिद्धके रूपमें चिंतवन किया जाय, तो यह चरमशरीरीको मुक्ति
प्रदान करता है और यदि चरमशरीरी न हो तो उसे वह आत्म-ध्यानसे उपार्जित पुण्यकी
सहायतासे भुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्त्यादिके भोगों)को प्रदान करनेवाला होता है ।’’
AtmabhAvane svarga keTalun dUr? keTale dUr eTale keTale chheTe AvelA pradeshe varte? nikaT ja
rahe – evo artha chhe, kAraN ke svAtmadhyAn sAthe upArjit puNyanun te ek phaL chhe.
vaLI, tattvAnushAsanamAn kahyun chhe ke —
‘guruno upadesh prApta karI sAvadhAn thayelA prANIo dvArA dhyAvavAmAn Avelo A
anantashaktivALo AtmA (AtmadhyAn karanArane) bhukti (bhogo) ane mukti pradAn kare
chhe.’......(shlo. 196).
‘A AtmA, arihant ane siddhanA rUpe chintavavAmAn (dhyAvavAmAn) AvatAn, charam
sharIrIne mukti pradAn kare chhe ane tenA dhyAn sAthe puNya upArjit karanAr anyane te
bhukti (arthAt svarga, chakravartyAdinA bhogo) pradAn kare chhe.’.......(shlo. 197).