kahAn jainashAstramALA ]
iShTopadesh
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‘‘मुञ्चांङ्गं ग्लपयस्यलं क्षिप कुतोऽप्यक्षाश्च विद्भात्यदो,
दूरे धेहि न हृष्य एव किमभूरन्या न वेत्सि क्षणम् ।
स्थेयं चेद्धि निरुद्धि गामिति तबोद्योगे द्विषः स्त्री क्षिपं –
त्याश्लेषक्रमुकांगरागललितालापैर्विधित्सू रतिम् (?) ।।’’
विशदार्थ — ये प्रतीत (मालूम) होनेवाले जितने इन्द्रियजन्य सुख व दुःख हैं, वे
सब वासनामात्र ही हैं । देहादिक पदार्थ न जीवके उपकारक ही हैं और न अपकारक ही ।
अतः परमार्थसे वे (पदार्थ) उपेक्षणीय ही हैं । किंतु तत्त्वज्ञान न होनेके कारण — ‘यह मेरे
लिए इष्ट है — उपकारक होनेसे’ तथा ‘यह मेरे लिए अनिष्ट है — अपकारक होनेसे ।’ ऐसे
विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कार जिन्हें वासना भी कहते हैं — इस जीवके हुआ करते हैं । अतः
ये सुख-दुःख विभ्रमसे उत्पन्न हुए संस्कारमात्र ही हैं, स्वाभाविक नहीं । ये सुख-दुःख
उन्हींको होते हैं, जो देहको ही आत्मा माने रहते हैं । ऐसा कथन अन्यत्र भी पाया जाता
है — ‘‘मुंचांगं’’
अर्थ — इस श्लोकमें दम्पतियुगलके वार्तालापका उल्लेख कर यह बतलाया गया
है, कि ‘वे विषय जो पहिले अच्छे मालूम होते थे, वे ही मनके दुःखी होने पर बुरे मालूम
होते हैं ।’ घटना इस प्रकार है — पति-पत्नी दोनों परस्परमें सुख मान, लेटे हुए थे कि
पति किसी कारणसे चिंतित हो गया । पत्नी पतिसे आलिंगन करनेकी इच्छासे अंगोंको
चलाने और रागयुक्त वचनालाप करने लगी । किन्तु पति जो कि चिंतित था, कहने लगा
‘‘मेरे अंगोंको छोड़, तू मुझे संताप पैदा करनेवाली है । हट जा । तेरी इन क्रियाओंसे मेरी
छातीमें पीड़ा होती है । दूर हो जा । मुझे तेरी चेष्टाओंसे बिलकुल ही आनन्द या हर्ष नहीं
हो रहा है ।’’
[A shlokamAn ek yugalanA vArtAlAp dvArA e batAvyun chhe, ke je viShayo pahelAn
sukhakar lAgatA hatA, te have man dukhI thatAn dukhakar lAge chhe. chintAmagna pati potAnI
strIne kahevA lAgyo — ]
‘‘mArA angane chhoD, tun mane santAp pedA kare chhe, haThI jA, mane Anand thato nathI;
tArI A kriyAothI mArI chhAtImAn pIDA thAy chhe, dUr jA; tyAre patnI ToNo mAratI kahe
chhe, ‘‘shun bIjI strI sAthe prIti karI chhe?’’ pati kahe chhe, ‘‘tun samay jotI nathI. jo dhairya
hoy to prayatnathI indriyone vashamAn rAkh’’ — em kahI te patnIne dUr karI de chhe.