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iShTopadesh
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अत्राह शिष्यः । ‘कथं धनं निन्द्यं ? येन पुण्यमुपार्ज्यते इति’ पात्रदानदेवार्चनादिक्रियायाः
पुण्यहेतोर्धनं विना असंभवात् पुण्यसाधनं धनं कथं निन्द्यं ? किं तर्हि प्रशस्यमेवातो यथा
कथंचिद्धनमुपार्ज्य पात्रादौ च नियोज्य सुखाय पुण्यमुपार्ज नीयमिति ।
अत्राह —
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः ।
स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलम्पति ।।१६।।
यहाँ पर शिष्यका कहना है कि धन जिससे पुण्यका उपार्जन किया जाता है, वह
निंद्य-निंदाके योग्य क्यों है ? पात्रोंको दान देना, देवकी पूजा करना, आदि क्रियाएँ पुण्यकी
कारण हैं, वे सब धनके बिना हो नहीं सकती । इसलिए पुण्यका साधनरूप धन निंद्य क्यों ?
वह तो प्रशंसनीय ही है । इसलिए जैसे बने वैसे धनको कमाकर पात्रादिकोंमें देकर सुखके
लिए पुण्य संचय करना चाहिए । इस विषयमें आचार्य कहते हैं —
पुण्य हेतु दानादिको, निर्धन धन संचेय ।
स्नान हेतु निज तन कुधी, कीचड़से लिम्पेय ।।१६।।
अर्थ — जो निर्धन, पुण्यप्राप्ति होगी इसलिए दान करनेके लिए धन कमाता या
जोड़ता है, वह ‘स्नान कर लूँगा’ ऐसे ख्यालसे अपने शरीरको कीचड़से लपेटता है ।
jIvan – (Ayu)nA vinAsh taraph lakSha ApatA nathI. Am vyAmohanun kAraN hovAthI dhan
dhikkArane pAtra chhe. 15.
ahIn, shiShya kahe chhe – jenAthI puNyanun upArjan thAy chhe te dhan nindya (nindAne
yogya), kem? puNyanA heturUp pAtra dAn, devArchanAdi kriyAo dhan vinA asambhavit chhe.
to puNyanA sAdhanarUp dhan kevI rIte nindavA yogya chhe? te to prashasya (stutipAtra) ja chhe.
mATe koI rIte dhanopArjan karI (dhan kamAIne) pAtrAdimAn vAparI sukh mATe puNya – upArjan
karavun joIe.
ahIn, AchArya kahe chhe —
dAn – hetu udyam kare, nirdhan dhan sanchey,
dehe kAdav lepIne, mAne ‘snAn karey’. 16.
anvayArtha : — [यः ] je [अवित्तः ] nirdhan [श्रेयसे ] puNyanI prApti arthe [त्यागाय ]