kahAn jainashAstramALA ]
iShTopadesh
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आरम्भे तापकान्प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् ।
अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधी ।।१७।।
टीका — को, न कश्चित् सुधीर्विद्वान् सेवते इन्द्रियप्रणालिकयानुभवति । कान्
भोगोपभोगान् ।
उक्तं च —
‘‘तदात्त्वे सुखसंज्ञेषु भोगेष्वज्ञोऽनुरज्यते ।
हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ।।’’
भोगार्जन दुःखद महा, भोगत तृष्णा बाढ़ ।
अंत त्यजत गुरु कष्ट हो, को बुध भोगत गाढ़ ।।१७।।
अर्थ — आरंभमें संतापके कारण और प्राप्त होने पर अतृप्तिके करनेवाले तथा अन्तमें
जो बड़ी मुश्किलोंसे भी छोड़े नहीं जा सकते, ऐसे भोगोपभोगोंको कौन विद्वान् — समझदार-
ज्यादती व आसक्तिके साथ सेवन करेगा ?
विशदार्थ — भोगोपभोग कमाये जानेके समय, शरीर इन्द्रिय और मनको क्लेश
पहुँचानेका कारण होते हैं । यह सभी जन जानते हैं कि गेहूँ, चना, जौ आदि अन्नादिक
भोग्य द्रव्योंके पैदा करनेके लिये खेती करनेमें एड़ीसे चोटी तक पसीना बहाना आदि दुःसह
bhogArjan dukhad mahA, pAmye tRuShNA amAp,
tyAg – samay ati kaShTa jyAn, ko seve dhImAn? 17.
anvayArtha : — [आरम्भे ] ArambhamAn [तापकान् ] santAp karanAr, [प्राप्तौ अतृप्ति-
प्रतिपादकान् ] prApta thatAn atRupti karanAr ane [अन्ते सुदुस्त्यजान् ] antamAn mahA mushkelIthI
paN chhoDI na shakAy tevA [कामान् ] bhogopabhogone [कः सुधीः ] koN buddhishALI [कामं ]
AsaktithI [सेवते ] sevashe?
TIkA : — koN? koI buddhishALI – vidvAn sevashe nahi arthAt indriyo dvArA
bhogavashe nahi. kone? bhogopabhogone. kahyun chhe ke — ‘तदात्त्वेसुखसंज्ञेषु........’
te vakhate sukh nAmathI oLakhAtA bhogomAn agnAnI (hey – upAdeyano vivek nahi
karanAr) anurAg kare chhe, parantu parIkShApradhAnI jano barAbar parIkShA karIne hitane ja
anusare chhe (jenAthI hit thAy tenun ja anusaraN kare chhe).’