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iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
कथं भूतान्, तापकान् देहेन्द्रियमनः क्लेशहेतून् । क्व ? आरम्भे उत्पत्त्युपक्रमे ।
अन्नादिभोग्यद्रव्य – संपादनस्य कृष्यादिक्लेश – बहुलतायाः सर्वजनसुप्रसिद्धत्वात् । तर्हि भुज्यमानाः
कामाः सुखहेतवः सन्तीतिसेव्यास्ते इत्याह, प्राप्तावित्यादि । प्राप्तौ इन्द्रियेण सम्बन्धे सति अतृप्तेः
सुतृष्णायाः प्रतिपादकान् दायकान् ।
उक्तं च [ज्ञानार्णवे २० – ३० ] —
‘‘अपिं संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा ।
तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं विसर्पति ।।’’
क्लेश हुआ करते हैं । कदाचित् यह कहो कि भोगे जा रहे भोगोपभोग तो सुखके कारण
होते हैं ! इसके लिये यह कहना है कि इन्द्रियोंके द्वारा सम्बन्ध होने पर वे अतृप्ति यानी
बढ़ी हुई तृष्णाके कारण होते हैं, जैसा कि कहा गया है : — ‘‘अपि संकल्पिता; कामाः०’’
‘‘ज्यों ज्यों संकल्पित किए हुए भोगोपभोग, प्राप्त होते जाते हैं, त्यों त्यों मनुष्योंकी
तृष्णा बढ़ती हुई सारे लोकमें फै लती जाती है । मनुष्य चाहता है, कि अमुक मिले । उसके
मिल जाने पर आगे बढ़ता है, कि अमुक और मिल जाय । उसके भी मिल जाने पर
मनुष्यकी तृष्णा विश्वके समस्त ही पदाथोंको चाहने लग जाती है कि वे सब ही मुझे मिल
जाएँ । परंतु यदि यथेष्ट भोगोपभोगोंको भोगकर तृप्त हो जाय तब तो तृष्णारूपी सन्ताप
ठण्डा पड़ जाएगा ! इसलिए वे सेवन करने योग्य हैं । आचार्य कहते हैं कि वे भोग लेने
kevA (bhogopabhogone)? santAp karanAr arthAt deh, indriyo ane manane kleshanA
kAraNarUp. kyAre? ArambhamAn – utpattinA kramamAn, kAraN ke annAdi bhogya dravya (vastu)
sampAdan karavAmAn khetI Adi sambandhI bahu klesh rahe chhe e sarva janomAn suprasiddha chhe.
tyAre kahe chhe ke bhogavavAmAn AvatA bhogo to sukhanun kAraN chhe, tethI te sevavA yogya
chhe. to (javAbamAn) kahe chhe ke — प्राप्तावित्यादि – prApti samaye eTale indriyo sAthe sambandh thatAn
te (bhogo) atRupti karanAr arthAt bahu tRuShNA utpanna karanAr chhe. kahyun chhe ke — ‘अपि
संकल्पिताः’
‘jem jem sankalpit (kalpelA) bhogopabhog prApta thAy chhe, tem tem manuShyonI
tRuShNA (vadhI jaI) badhA vishvamAn phelAI jAy chhe.’
(shiShya) kahe chhe – tyAre ichchhA pramANe te (bhogopabhogane) bhogavIne tRupta thatAn,
tRuShNArUpI santAp shamI jashe. tethI te sevavA yogya chhe.