kahAn jainashAstramALA ]
iShTopadesh
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स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः ।
अत्यन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ।।२१।।
टीका — अस्ति ! कोऽसौ ? आत्मा । कीद्दशः, लोकालोकविलोकनः लोको
जीवाद्याकीर्णमाकाशं ततोऽन्यदलोकः तौ विशेषेण अशेषविशेषनिष्ठतया लोक्यते पश्यति
जानाति । एतेन ‘‘ज्ञानशून्यं चैतन्यमात्रमात्मा’’ इति सांख्यमतं, बुद्धयादि – गुणोज्झितः पुमानिति
यौगमतं च प्रत्युक्तम् । प्रतिध्वस्तश्च नैरात्म्यवादो बौद्धानाम् । पुन कीदृशः ? अत्यन्तसौख्यवान् –
निज अनुभवसे प्रगट है, नित्य शरीर – प्रमान ।
लोकालोक निहारता, आतम अति सुखवान ।।२१।।
अर्थ — आत्मा लोक और अलोकको देखने जाननेवाला, अत्यन्त अनंत सुख
स्वभाववाला, शरीरप्रमाण, नित्य, स्वसंवेदनसे तथा कहे हुए गुणोंसे योगिजनों द्वारा अच्छी
तरह अनुभवमें आया हुआ है ।
विशदार्थ — जीवादिक द्रव्योंसे घिरे हुए आकाशको लोक और उससे अन्य सिफ र्
आकाशको अलोक कहते हैं । इन दोनोंको विशेषरूपसे उनके समस्त विशेषोंमें रहते हुए
जो जानने – देखनेवाला है, वह आत्मा है । ऐसा कहनेसे ‘‘ज्ञानशून्यचैतन्यमात्रमात्मा’’ ज्ञानसे
शून्य सिफ र् चैतन्यमात्र ही आत्मा है, ऐसा सांख्यदर्शन तथा ‘‘बुद्ध्यादिगुणोज्झितः पुमान्’’
nij anubhavathI pragaT je, nitya sharIr pramAN,
lokAlok vilokato, AtmA atisukhavAn. 21.
anvayArtha : — [आत्मा ] AtmA [लोकालोकविलोकनः ] lok ane alokano gnAtA –
draShTA, [अत्यन्तसौख्यवान् ] atyanta – anant – sukhasvabhAvavALo, [तनुमात्रः ] sharIr pramAN,
[निरत्ययः ] avinAshI (nitya) ane [स्वसंवेदनसुव्यक्तः अस्ति ] svasamvedan dvArA sArI rIte
vyakta (pragaT) chhe — (arthAt svasamvedanapratyakSha chhe).
TIkA : — chhe. koN te? AtmA. kevo (AtmA)? lok ane alokano gnAtA –
draShTA – arthAt jIvAdi dravyothI vyApta AkAsh te lok ane tenAthI anya (AkAsh) te
alok – te bannene visheSharUpathI arthAt asheSharUpe (kAI paN bAkI rAkhyA vagar) paripUrNarUpe
je avaloke chhe – dekhe chhe – jANe chhe, te enAthI (em kahIne)
‘ज्ञानशून्यं चैतन्यमात्रमात्मा’ –
gnAnashUnya chaitanyamAtra ja AtmA chhe – evA sAnkhyamatanun tathA
‘बुद्धयादिगुणोज्झितः पुमानिति’ —