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iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
‘यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् ।
स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरास्रवः’ ।।१।।
तथा च — [तत्त्वानुशासने ] —
‘तथा ह्यचरमाङ्गस्य ध्यानमभ्यस्यतः सदा ।
निर्जरा संवरश्चास्य सकलाशुभकर्मणाम् ।।२२५।।
अपि च — [समाधितन्त्रे ] —
की तथा देवादिकोंके द्वारा किये गये उपसर्गोंकी बाधाकों अनुभवमें न लानेसे कर्मोंके
आगमन (आस्रव) को रोक देनेवाली निर्जरा भी होती है । जैसा कि कहा भी है : —
‘‘यस्य पुण्यं च पापं च०’’
‘‘जिसके पुण्य और पापकर्म, बिना फल दिये स्वयमेव (अपने आप) गल जाते
हैं — खिर जाते हैं, वही योगी है । उसको निर्वाण हो जाता है । उसके फि र नवीन कर्मोंका
आगमन नहीं होता । इस श्लोक द्वारा पुण्य-पापरूप दोनों ही प्रकारके कर्मोंकी निर्जरा होना
बतलाया है । और भी तत्त्वानुशासनमें कहा है — ‘‘तथा ह्यचरमांगस्य०’’
चरमशरीरीके ध्यानका फल कह देनेके बाद आचार्य अचरमशरीरीके ध्यानका फल
बतलाते हुए कहते हैं — कि जो सदा ही ध्यानका अभ्यास करनेवाला है, परन्तु जो
अचरमशरीरी है, (तद्भवमोक्षगामी नहीं है) ऐसे ध्याताको सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंकी निर्जरा व
संवर होता है । अर्थात् बह प्राचीन एवं नवीन समस्त अशुभ कर्मोंका संवर तथा निर्जरा
करता है । इस श्लोक द्वारा पापरूप कर्मोंकी ही निर्जरा व उनका संवर होना बतलाया
‘jenAn puNya ane pAp karma phaL ApyA vinA svayamev (potAnI meLe ja) gaLI
(jharI) jAy chhe, te yogI chhe. teno nirvAN (mokSha) thAy chhe ane tene vaLI Asrav thato
nathI.’
(A shlokamAn puNya ane pAparUp karmonI nirjarA batAvI chhe),
tathA
‘तत्त्वानुशासन’ – shlok 225mAn kahyun chhe ke —
‘je sadA dhyAnano abhyAs kare chhe, parantu acharamasharIrI chhe (tadbhavamokShagAmI
nathI) tenAn (tevA dhyAtAnAn) sakal ashubh karmonI nirjarA ane samvar thAy chhe’.
(A shlokamAn pAparUp karmonI ja nirjarA tathA samvar batAvyo chhe).
vaLI, shrI pUjyapAdasvAmIe
‘समाधितन्त्र’
shlok 34mAn kahyun chhe ke —