kahAn jainashAstramALA ]
iShTopadesh
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तथा चोक्तम् —
‘न कर्मबहुलं जगन्नचलनात्मकं कर्म वा,
न चापि करणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत् ।’
यदैक्यमुपयोगभूःसमुपयाति रागादिभिः ।
स एव किल केवलं भवति बन्धसेतुर्नृणाम् ।।
तथा स एव जीवो निर्ममस्तद्विपरीतस्तैर्मुच्यत इति यथासंख्येन योजनार्थं
क्रमादित्युपात्तम् ।
उक्तं च —
भी कर्मोंसे बँधता है । उपलक्षणसे यह भी अर्थ लगा लेना कि ‘मैं इसका हूँ’ ऐसे
अभिनिवेशवाला जीव भी बँधता है, जैसा कि अमृतचंद्राचार्यने समयसार कलशमें कहा है —
‘‘न कर्म बहुलं जगन्न०’’
अर्थ — न तो कर्मस्कन्धोंसे भरा हुआ यह जगत् बंधका कारण है, और न हलन-
चलनादिरूप क्रिया ही, न इन्द्रियाँ कारण हैं और न चेतन-अचेतन पदार्थोंका विनाश करना
ही बन्धका कारण है । किन्तु जो उपयोगस्वरूपी जमीन रागादिकोंके साथ एकताको प्राप्त
होती है, सिफ र् वही अर्थात् जीवोंका रागादिक सहित उपयोग ही बन्धका कारण है । यदि
वही जीव निर्ममरागादि रहित-उपयोगवाला हो जाय, तो कर्मोंसे छूट जाता है । कहा भी
है कि — ‘‘अकिंचनोऽह०’’
shrI amRutachandrAchArye shrI samayasAr kalash shlok 164mAn kahyun chhe ke —
‘karmabandh karanArun kAraN, nathI bahu karmayogya pudgalothI bharelo lok, nathI chalanarUp
karma (arthAt kAy – vachan – mananI kriyArUp yog), nathI anek prakAranAn karaNo (indriyo)
ke nathI chetan – achetanano ghAt. ‘upayog bhU’ arthAt AtmA rAgAdik sAthe je aikya pAme
chhe te ja ek ( – mAtra rAgAdik sAthe ekapaNun pAmavun te ja) kharekhar puruShone bandhanun kAraN
chhe.’
tathA te ja jIv jo nirmam eTale tenAthI viparIt (arthAt rAgAdithI rahit
upayogavALo) thAy, to te karmothI chhUTI jAy chhe.
(anukram sankhyAnI yojanA mATe shlokamAn ‘क्रमात्’ shabda vAparyo chhe, (jem ke —
सममः, वध्यते, निर्ममः मुच्यते).