Jain Siddhant Praveshika-Gujarati (Devanagari transliteration).

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परिणमाववाना कारणभूत जीवनी शक्तिनी पूर्णताने
शरीरपर्याप्ति कहे छे.
£न्द्रियपर्याप्तिआहारवर्गणाना परमाणुओने
इन्द्रियोना आकारे परिणमाववाने तथा इन्द्रिय द्वारा विषय
ग्रहण करवाना कारणभूत जीवनी शक्तिनी पूर्णताने
इन्द्रियपर्याप्ति कहे छे.
श्वासोच्छ्वासपर्याप्तिआहारवर्गणाना
परमाणुओने श्वासोच्छ्वासरूप परिणमाववाना कारणभूत
जीवनी शक्तिनी पूर्णताने श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहे छे.
भाषापर्याप्तिभाषावर्गणाना परमाणुओने
वचनरूप परिणमाववाना कारणभूत जीवनी शक्तिनी
पूर्णताने भाषापर्याप्ति कहे छे.
मनःपर्याप्तिमनोवर्गणाना परमाणुओने
हृदयस्थानमां आठ पांखडीना कमलाकार मनरूप
परिणमाववाने तथा तेमनी द्वारा यथावत् (जोईए तेवी
रीते) विचार करवाना कारणभूत जीवनी शक्तिनी पूर्णताने
मनःपर्याप्ति कहे छे.
एकेन्द्रिय जीवोने भाषापर्याप्ति अने मनःपर्याप्ति
सिवाय बाकीनी चार पर्याप्ति होय छे.
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, अने असंज्ञी पंचेन्द्रिय
जीवोने मनःपर्याप्ति सिवायनी बाकीनी पांच पर्याप्ति होय
छे, अने संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोने छए पर्याप्ति होय छे. ए
सर्व पर्याप्तिओने पूर्ण थवानो काळ अंतर्मुहूर्त छे तथा एक
एम एक पर्याप्तिनो काळ पण अंतर्मुहूर्त छे, अने सर्व
पर्याप्तिनो काळ मळीने पण अंतर्मुहूर्त छे, अने पहेलेथी
बीजी सुधीनो तथा बीजीथी त्रीजी सुधीनो एवी रीते छठ्ठी
पर्याप्ति सुधीनो काळ क्रमथी मोटा मोटा अंतर्मुहूर्त छे.
पोतपोताने योग्य पर्याप्तिओनो प्रारंभ तो एकदम
थाय छे. परंतु पूर्णता क्रमथी थाय छे. ज्यां सुधी कोई पण
जीवनी शरीरपर्याप्ति पूर्ण तो थई न होय, पण नियमथी
पूर्ण थवावाळी होय, त्यां सुधी ते जीवने
निर्वृत्त्यपर्याप्तक
कहे छे.
अने जेनी शरीरपर्याप्ति पूर्ण थई गई होय तेने
पर्याप्तक कहे छे. अने जेनी एक पण पर्याप्ति पूर्ण थई
न होय तथा श्वासना अढारमां भागमां ज मरण थवावाळुं
होय, तेने
लब्धयपर्याप्तक कहे छे.
४६ ][ अध्यायः २श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका ][ ४७