Jain Siddhant Praveshika-Gujarati (Devanagari transliteration).

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थाय छेमिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, नरकगति,
नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, जाति
४ (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), स्थावर,
आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त अने साधारण.
३२४ प्र. अनंतानुबंधी कषायोदयजनित अविरतिथी
कई कई प्रकृतिओनो बंध थाय छे?
उ. अनंतानुबंधीकषायोदयजनित अविरतिथी २५
प्रकृतिओनो बंध थाय छे.ःअनंतानुबंधी क्रोध, मान,
माया, लोभ, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग,
दुःस्वर, अनादेय, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र,
तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु, उद्योत, संस्थान ४
(न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन), संहनन ४ (वज्रनाराच,
नाराच, अर्द्धनाराच अने कीलित).
३२५ प्र. अप्रत्याख्यानावरणकषायोदयजनित
अविरतिथी कई कई प्रकृतिओनो बंध थाय छे?
उ. दश प्रकृतिओनो बंध थाय छेः
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति,
मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिकशरीर,
औदारिकांगोपांग अने वज्रॠषभनाराच संहनन.
३२६ प्र. प्रत्याख्यानावरणकषायोदयजनित अविरति-
थी कई कई प्रकृतिओनो बंध छे?
उ. चार प्रकृतिओनोअर्थात्प्रत्याख्यानावरण
क्रोध, मान, माया अने लोभनो.
३२७ प्र. प्रमादथी केटली प्रकृतिओनो बंध थाय
छे?
उ. छःप्रकृतिओनोअर्थात्अस्थिर, अशुभ,
अशातावेदनीय, अयशःकीर्ति, अरति अने शोकनो.
३२८ प्र. कषायना उदयथी केटली प्रकृतिओनो बंध
थाय छे?
उ. अठ्ठावन प्रकृतिओनोअर्थात्देवायु १, निद्रा
१, प्रचला १, तीर्थंकर १, निर्माण १, प्रशस्तविहायोगति १,
पंचेन्द्रियजाति १, तैजसशरीर १, कार्माणशरीर १,
आहारकशरीर १, आहारकांगोपांग १, समचतुरस्रसंस्थान
१, वैक्रियकशरीर १, वैक्रियकांगोपांग १, देवगति १,
७८ ][ अध्यायः २श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका ][ ७९