अगुरुलघु १, उपघात १, परघात १, उच्छ्वास १, त्रस १,
बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, स्थिर १, शुभ १, सुभग
१, सुस्वर १, आदेय १, हास्य १, रति १, जुगुप्सा १, भय
१, पुरुषवेद १, संज्वलन क्रोध १, मान १, माया १, लोभ
१, मतिज्ञानावरण १, श्रुतज्ञानावरण १, अवधिज्ञानावरण
१, मनःपर्ययज्ञानावरण १, केवलज्ञानावरण १, चक्षुदर्शना-
वरण १, अचक्षुदर्शनावरण १, अवधिदर्शनावरण १, केवल-
दर्शनावरण १, दानान्तराय १, भोगान्तराय १, उपभोगा-
न्तराय १, वीर्यान्तराय १, लाभान्तराय १, यशस्कीर्ति १,
अने उच्चगोत्र १ ए अठ्ठावन प्रकृतिओनो बंध थाय छे.
बंधन तथा पांचे संघातनुं ग्रहण करेलुं नथी, ते कारणथी
ते दश घटी अने सम्यग्मिथ्यात्व तथा समकित मोहनीय
ए बे प्रकृतिओनो बंध थतो नथी; केमके सम्यग्द्रष्टि जीव
पूर्वबद्ध मिथ्यात्व प्रकृतिना त्रण खंड करे छे. त्यारे आ बे
प्रकृतिओनो प्रादुर्भाव थाय छे. ए कारणथी ए बे प्रकृतिओ
घटी गई.
तेना आस्रवने सांपरायिक आस्रव कहे छे.
छे.