Jain Siddhant Praveshika-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७ अप्रमत्तविरत, ८ अपूर्वकरण, ९ अनिवृत्तिकरण, १०
सूक्ष्मसांपराय, ११ उपशांतमोह, १२ क्षीणमोह, १३
सयोगकेवली, १४ अयोगकेवली ए चौद गुणस्थान छे.
४८२ प्र. गुणस्थानोनां आ नाम पडवानुं कारण शुं
छे?
उ. गुणस्थानोनां आ नाम पडवानुं कारण
मोहनीयकर्म अने योग छे.
४८३ प्र. क्या क्या गुणस्थाननुं क्युं निमित्त छे?
उ. आदिनां चार गुणस्थान तो दर्शनमोहनीय
कर्मना निमित्तथी छे. पांचमा गुणस्थानथी मांडीने बारमा
गुणस्थान पर्यंत आठ गुणस्थान चारित्रमोहनीयकर्मना
निमित्तथी छे. अने तेरमुं अने चौदमुं गुणस्थान योगोना
निमित्तथी छे. भावार्थः पहेलुं मिथ्यात्वगुणस्थान
दर्शनमोहनीयकर्मना उदयथी थाय छे तेमां आत्माना
परिणाम मिथ्यात्वरूप थाय छे.
चोथुं गुणस्थान दर्शनमोहनीयकर्मना उपशम, क्षय
अथवा क्षयोपशमना निमित्तथी थाय छे. आ गुणस्थानमां
आत्माना सम्यग्दर्शन पर्यायनो प्रादुर्भाव थई जाय छे.
त्रीजुं गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र)
दर्शनमोहनीयकर्मना उदयथी सम्यग्मिथ्यात्वरूप थाय छे.
आ गुणस्थानमां आत्माना परिणाम सम्यग्मिथ्यात्व अथवा
उभयरूप थाय छे.
पहेला गुणस्थानमां औदयिकभाव, चोथा गुणस्थानमां
औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिकभाव अने त्रीजा
गुणस्थानमां औदयिकभाव थाय छे. परंतु बीजुं गुणस्थान
दर्शनमोहनीय कर्मनी उदय, उपशम, क्षय अने क्षयोपशम
ए चार अवस्थाओमांथी कोई पण अवस्थानी अपेक्षा
राखतुं नथी, तेथी अहीं दर्शनमोहनीयकर्मनी अपेक्षाथी
परिणामिक भाव छे, किन्तु अनंतानुबंधीरूप
चारित्रमोहनीयकर्मनो उदय होवाथी आ गुणस्थानमां
चारित्रमोहनीयकर्मनी अपेक्षाथी औदयिकभाव पण कही
शकाय छे. आ गुणस्थानमां अनंतानुबंधीना उदयथी
सम्यक्त्वनो घात थई गयो छे, तेथी अहीं सम्यक्त्व नथी
अने मिथ्यात्वनो पण उदय आव्यो नथी, तेथी मिथ्यात्व
अने सम्यक्त्वनी अपेक्षाथी अनुदयरूप छे.
११६ ][ अध्यायः ४श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका ][ ११७