Jain Siddhant Praveshika-Gujarati (Devanagari transliteration).

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पांचमा गुणस्थानथी दशमा गुणस्थानसुधी (देशविरत,
प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण,
सूक्ष्मसांपराय) ए छ गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्मना
क्षयोपशमथी थाय छे. तेथी आ गुणस्थानोमां क्षायोपशमिक
भाव थाय छे. आ गुणस्थानोमां सम्यक्चारित्र पर्यायनी
अनुक्रमे वृद्धि थती जाय छे.
अगियारमुं उपशांतमोह गुणस्थान चारित्रमोहनीय
कर्मना उपशमथी थाय छे, तेथी अगियारमा गुणस्थानमा
औपशमिक भाव थाय छे. जोके अहीं चारित्रमोहनीय
कर्मनो पूर्णतया उपशम थई गयो छे, तोपण योगनो
सद्भाव होवाथी पूर्ण चारित्र नथी. केमके
सम्यक्चारित्रमोहनीयना लक्षणमां योग अने कषायना
अभावथी पूर्ण सम्यक्चारित्र थाय छे, एवुं लख्युं छे.
बारमुं क्षीणमोह गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्मना
क्षयथी थाय छे, तेथी अहीं क्षायिक भाव थाय छे. आ
गुणस्थानमां पण अगियारमा गुणस्थाननी माफक
सम्यक्चारित्रनी पूर्णता नथी. सम्यग्ज्ञान गुण जोके चोथा
गुणस्थानमां ज प्रगट थई चूक्यो हतो. भावार्थ
जोके
आत्माना ज्ञानगुणनो उघाड अनादिकाळथी प्रवाहरूप चाली
रह्यो छे, तोपण दर्शन मोहनीय कर्मनो उदय थवाथी ते
ज्ञान मिथ्यारूप हतुं. परंतु चोथा गुणस्थानमां ज्यारे
दर्शनमोहनीय कर्मना उदयनो अभाव थई गयो, त्यारे ते
ज आत्मानो ज्ञानपर्याय सम्यग्ज्ञान कहेवावा लाग्यो अने
पंचमादि गुणस्थानोमां तपश्चरणादिना निमित्तथी अवधि,
मनःपर्ययज्ञान पण कोई कोई जीवने प्रगट थई जाय छे
तथापि केवळज्ञान थया विना सम्यग्ज्ञाननी पूर्णता थई
शकती नथी, तेथी आ बारमा गुणस्थान सुधी जोके
सम्यग्दर्शननी पूर्णता थई गई छे (केमके क्षायिक सम्यक्त्व
वगर क्षपकश्रेणी चढाती नथी अने क्षपकश्रेणी वगर बारमा
गुणस्थाने जाय नहि.) तोपण सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्र गुण अत्यार सुधी अपूर्ण छे, तेथी
अत्यारसुधी मोक्ष थतो नथी.
तेरमुं सयोगकेवळी गुणस्थान योगोना सद्भावनी
अपेक्षाथी थाय छे, तेथी तेनुं नाम सयोग अने केवळज्ञानना
निमित्तथी सयोग केवळी छे. आ गुणस्थानमां सम्यग्ज्ञाननी
पूर्णता थई जाय छे, परंतु चारित्र गुणनी पूर्णता न
होवाथी, मोक्ष थतो नथी.
११८ ][ अध्यायः ४श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका ][ ११९