Jain Siddhant Praveshika-Gujarati (Devanagari transliteration).

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चौदमुं अयोगकेवळी गुणस्थान योगोना अभावनी
अपेक्षाए छे, तेथी तेनुं नाम अयोगकेवळी छे. आ
गुणस्थानमां सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए
त्रणे गुणोनी पूर्णता थई जाय छे, तेथी मोक्ष पण हवे दूर
रह्यो नथी, अर्थात् अ, इ, उ, ॠ, लृ, ए पांच ह्स्व
स्वरोनो उच्चार करवामां जेटलो वखत लागे छे तेटला ज
वखतमां मोक्ष थई जाय छे.
४८४ प्र. मिथ्यात्व गुणस्थाननुं स्वरूप शुं छे?
उ. मिथ्यात्व प्रकृतिना उदयथी अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप
आत्माना परिणामविशेषने मिथ्यात्वगुणस्थान कहे छे. आ
मिथ्यात्व गुणस्थानमां रहेवावाळो जीव विपरीत श्रद्धान करे
छे अने साचा धर्म तरफ तेनी रुचि (प्रीति) होती नथी.
जेमके पित्तज्वरवाळा रोगीने दूध वगेरे रस कडवा लागे छे,
तेवी ज रीते, तेने पण सत्यधर्म सारो लागतो नथी.
४८५ प्र. मिथ्यात्व गुणस्थानमां कई कई
प्रकृतिओनो बंध थाय छे?
उ. कर्मनी १४८ प्रकृतिओमांथी स्पर्शादि २०
प्रकृतिओनो अभेद विवक्षाथी स्पर्शादिक चारमां अने बंधन
५ अने संघात ५ नी अभेद विवक्षाथी पांचे शरीरोमां
अंतर्भाव थाय छे, तेथी भेद विवक्षाथी सर्व १४८ अने
अभेद विवक्षाथी १२२ प्रकृतिओ छे, सम्यग्मिथ्यात्व अने
सम्यक्प्रकृति ए बे प्रकृतिओनो बंध थतो नथी, केमके ए
बन्ने प्रकृतिओनी सत्ता सम्यक्त्व परिणामोथी मिथ्यात्व
प्रकृतिना त्रण खंड करवाथी थाय छे, तेथी अनादि
मिथ्याद्रष्टि जीवनी बंधयोग प्रकृति ११७ अने
सत्त्वयोगप्रकृति १४३ छे. मिथ्यात्व गुणस्थानमां
तीर्थंकरप्रकृति, आहारक शरीर अने आहारक अंगोपांग ए
त्रण प्रकृतिओनो बंध थतो नथी; केमके ए त्रण प्रकृतिओनो
बंध सम्यग्द्रष्टिओने ज थाय छे, तेथी आ गुणस्थानमां
१२०मांथी त्रण घटाडवाथी ११७ प्रकृतिओनो बंध थाय छे.
४८६ प्र. मिथ्यात्व गुणस्थानमां केटली प्रकृतिओनो
उदय थाय छे?
उ. मिथ्यात्व गुणस्थानमां, सम्यक्प्रकृति,
सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग
अने तीर्थंकर प्रकृति ए पांच प्रकृतिओनो आ गुणस्थानमां
१२० ][ अध्यायः ४श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका ][ १२१