Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration). Acharyanu Swaroop Upadhyayanu Swaroop.

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छे परंतु तेने खेंचीताणी जे करता नथी, पोताना उपयोगने जेओ बहु भमावता नथी, पण
उदासीन थई निश्चल वृत्तिने धारण करे छे, कदाचित् मंद रागना उदयथी शुभोपयोग पण थाय
छे जे वडे ते शुद्धोपयोगनां बाह्य साधनो छे तेमां अनुराग करे छे, परंतु ए रागभावने पण
हेय जाणी दूर करवा इच्छे छे, तीव्रकषायना उदयना अभावथी हिंसारूप अशुभोपयोग
परिणतिनुं तो अस्तित्व ज जेने रह्युं नथी एवी अंतरंग अवस्था थतां बाह्यदिगंबर
सौम्यमुद्राधारी थया छे, शरीरसंस्कारादि विक्रियाथी जेओ रहित थया छे, वनखंडादि विषे जेओ
वसे छे,
अठ्ठावीस मूलगुणोने जेओ अखंडित पालन करे छे, बावीस परिषहने जेओ सहन
करे छे, बार प्रकारना तपने जेओ आदरे छे, कदाचित् ध्यानमुद्राधारी प्रतिमावत् निश्चल थाय
छे, कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओमां प्रवर्ते छे, कोई वेळा मुनिधर्मने सहकारी शरीरनी
स्थिति अर्थे योग्य आहार-विहारादि क्रियामां सावधान थाय छे. ए प्रमाणे जेओ जैनमुनि छे
ते सर्वनी एवी ज अवस्था होय छे.
आचार्यनुं स्वरुप
तेओमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी अधिकता वडे प्रधानपदने पामी जेओ संघमां नायक
थया छे, मुख्यपणे तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण विशे ज जेओ निमग्न छे परंतु कदाचित् धर्मलोभी
अन्य जीव याचक तेमने देखी रागअंशना उदयथी करुणाबुद्धि थाय तो तेमने धर्मोपदेश आपे
छे, दीक्षाग्राहकने दीक्षा आपे छे तथा पोताना दोष प्रगट करे छे तेने प्रायश्चित विधि वडे शुद्ध
करे छे एवा आचरण करवा
कराववावाळा श्री आचार्य परमेष्ठीने अमारा नमस्कार हो.
उपाधयायनुं स्वरुप
वळी जे पुरुष घणा जैनशास्त्रनो ज्ञाता थईने संघमां पठन-पाठननो अधिकारी बन्यो
होय; समस्त शास्त्रना प्रयोजनभूत अर्थने जाणी एकाग्र थई जे पोताना स्वरूपने ध्यावे छे,
परंतु कदाचित् कषाय अंशना उदयथी त्यां उपयोग न थंभे तो आगमने पोते भणे छे वा अन्य
१. पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिरोध, छ आवश्यक, केशलोच, स्नानाभाव, नग्नता,
अदंतधोवन, भूमिशयन, स्थितिभोजन अने एक वार आहारग्रहणए अठ्ठावीस मूलगुणो
छे.
२. क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डांसमसक, चर्या, शच्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति,
स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कारपुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा अने अज्ञानए बावीस
प्रकारना परिषह छे.
३. अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्तशय्यासन अने कायक्लेश
छ प्रकारना बाह्यतप तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग अने ध्यानए छ प्रकारनां
अंतरंग तप मळी बार प्रकारनां तप छे.
४ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक