धर्मबुद्धिवानने भणावे छे, ए प्रमाणे समीपवर्ती भव्य जीवोने अध्ययन कराववावाळा श्री
उपाध्याय परमेष्ठीने अमारा नमस्कार हो.
✾ साधाुनुं स्वरुप ✾
ए बे पदवीधारक विना अन्य समस्त जे मुनिपदना धारक छे, आत्मस्वभावने साधे
छे, पोतानो उपयोग परद्रव्यमां इष्ट-अनिष्टपणुं मानी फसाय नहि वा भागे नहि तेम
उपयोगने साधे छे, बाह्यमां तेना साधनभूत तपश्चरणादि क्रियामां प्रवर्ते छे वा कदाचित्
भक्ति – वंदनादि कार्यमां पण प्रवर्ते छे, एवा आत्मस्वभावना साधक साधु परमेष्ठीने अमारा
नमस्कार हो.
✾ पूज्यत्वनुं कारण ✾
ए प्रमाणे ए अर्हंतादिकनुं स्वरूप छे ते वीतराग विज्ञानमय छे, ए वडे ज
अर्हंतादिक स्तुति योग्य महान थया छे. कारण के जीवतत्त्वथी तो सर्व जीवो समान छे, परंतु
रागादि विकार वडे वा ज्ञाननी हीनता वडे तो जीव निंदा योग्य थाय छे तथा रागादिकनी
हीनता वडे वा ज्ञाननी विशेषता वडे स्तुति योग्य थाय छे. हवे अर्हंत – सिद्धने तो संपूर्ण
रागादिकनी हीनता तथा ज्ञाननी विशेषता थवाथी संपूर्ण वीतरागविज्ञानभाव संभवे छे तथा
आचार्य, उपाध्याय अने साधुने एकदेश रागादिकनी हीनता तथा ज्ञाननी विशेषताथी एकदेश
वीतरागविज्ञानभाव संभवे छे माटे ए अर्हंतादिक स्तुति योग्य महान जाणवा.
तेमां पण एम समजवुं के — ए अर्हंतादिक पदमां मुख्यपणे तो श्री तीर्थंकरनो तथा
गौणपणे सर्व केवलीनो अधिकार छे. आ पदनुं प्राकृत भाषामां अरहंत तथा संस्कृतमां
अर्हत् एवुं नाम जाणवुं. वळी चौदमा गुणस्थानना अनंतर समयथी मांडी सिद्ध नाम
जाणवुं.
वळी जेने आचार्यपद प्राप्त थयुं होय ते संघमां रहो वा एकाकी आत्मध्यान करो
वा एकलविहारी हो वा आचार्योमां पण प्रधानताने पामी गणधरपदना धारक हो, ए सर्वनुं
नाम आचार्य कहेवामां आवे छे.
वळी पठन – पाठन तो अन्य मुनि पण करे छे, परंतु जेने आचार्य द्वारा उपाध्याय
पद प्राप्त थयुं होय ते आत्मध्यानादिक कार्य करवा छतां पण उपाध्याय नाम ज पामे छे.
तथा जे पदवीधारक नथी ते सर्व मुनि साधुसंज्ञाना धारक जाणवा.
अहीं एवो कोई नियम नथी के – पंचाचार वडे ज आचार्यपद होय छे, पठन – पाठनादि
वडे उपाध्याय पद होय छे तथा मूलगुणना साधनवडे साधु पद होय छे, कारण १ए क्रियाओ
प्रथम अधिकारः पीठबंध प्ररूपक ][ ५