१आचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधागतिः स्युर्विशिष्टपदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जराः ।।
एको हेतुः क्रियाप्येका विधञ्चैको वहिः समः । तपो द्वादशधा चैकं व्रतं चैकं पंचधा ।।
त्रयोदशविधं चैकं चारित्रं समतैकधा । मूलोत्तरगुणाश्चैको संयमोऽप्येकधा मतः ।।
परिषहोपसर्गाणां सहनं च समं स्मृतम् । आहारादिविधिश्चैकश्चर्यास्थानासनादयः ।।
मार्गो मोक्षस्य सद्दष्टिर्ज्ञानं चारित्रमात्मनः रत्नत्रयं समं तेषामपि चान्तर्बहिःस्थितिम् ।।
ध्याता ध्यानं च ध्येयश्च ज्ञाता ज्ञान च ज्ञेयसात् चतुर्विधाराधनापि तुल्या क्रोधादिजिष्णुता ।।
किंवात्र बहुनोक्ते न तद्विशेषोऽवशिष्यते । विशेषाच्छेषनिःशेषो न्यायादस्त्यविशेषभाक् ।।
एवं मुनित्रयी ख्याता महतो महतामपि । तद्विशुद्धिविशेषोऽस्ति क्रमात्तरतमात्मकः ।।
अर्थः — आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए त्रणे प्रकारना उत्तम मुनिजनो पोतपोताना विशेष
पदो उपर आरूढ छे आर्थात् विशेष-विशेष पदोना भेदथी ज तेओना त्रण भेदो छे. बाकी तो
अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरणी अने प्रत्याख्यानावरणी ए त्रणे प्रकारना कषायोनो अभाव होवाथी
परिग्रह मात्रनो त्याग करी ए त्रणे मोक्षप्राप्ति अर्थे मुनि थया छे तेथी ए त्रणेनो हेतु एक छे.
बाह्य व्रताचरणरूप क्रिया तथा निर्ग्रंथ अवस्था ए त्रणेनी समान छे. बार प्रकारनुं तपश्चरण, पांच
महाव्रत, तेर प्रकारनुं चारित्र, समताभाव, अठ्ठावीस मूलगुण, चोराशी लाख उत्तरगुण अने संयम
ए त्रणेना समान छे. बावीस परिषह-उपसर्ग सहनता, आहारचर्याविधि, स्थान अने आसन वगेरे
ए त्रणेना समान छे. अंतर्बाह्य सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्ररूप रत्नत्रय अर्थात् मोक्षमार्ग पण ए त्रणेनो
समान छे. ध्याता – ध्यान – ध्येय, ज्ञाता – ज्ञान – ज्ञेय तथा दर्शन – ज्ञान – चारित्र अने तप ए चार प्रकारनी
सम्यक् आराधनाओनुं आराधन तथा क्रोधादि कषायोनो जय करवो पण ए त्रणेनो समान छे. वधारे
शुं कहीए? टूंकामां एटलुं ज के, ए त्रणे प्रकारनां मुनिजनो उपर प्रमाणे सर्व प्रकारथी समान छे.
भेद मात्र एटलो ज छे के, पोतपोताना पदानुसार जे कांई विशेषता छे ते ज मात्र अहीं रही जाय
छे. ते सिवाय बाकीनी सर्व क्रिया वा प्रकारो ए त्रणेना समान छे ए वात न्यायथी सिद्ध छे. आचार्य,
उपाध्याय अने साधु ए मुनित्रयी महापुरुषोमां सर्वथी श्रेष्ठ छे. जोके तेमना मूलगुणो वा उत्तरगुणो
सामान्य गुणोनी अपेक्षाए समान छे तोपण तेमना कार्यनी अपेक्षाए तरतमरूपे ए त्रणेमां परस्पर
भेद छे.
भावार्थः – ए त्रणेनां कार्य अलग अलग होवाथी तेमनां पद पण अलग अलग छे. अर्थात्
आचार्यने आदेश अने उपदेश देवानो अधिकार छे. उपाध्यायने मात्र उपदेश देवानो ज अधिकार छे
तथा अन्य साधुजनोने न आदेश देवानो के न उपदेश देवानो अधिकार छे. ए प्रमाणे ए त्रणेमां
परस्पर पोतपोताना कार्य वा पदनी अपेक्षाए ज तरतमरूपे विशेषता छे.
(श्री लाटीसंहिता सर्ग ४ थो, श्लोक १६० थी १६६ तथा श्लोक १९७ – अनुवादक.)
तो सर्व मुनिजनोने साधारणरूप छे, परंतु शब्दनयथी तेनो अक्षरार्थ एवो करवामां आवे
छे. पण समभिरूढनयथी पदवीनी अपेक्षाए ज ए आचार्यादिक नाम जाणवां. जेम
शब्दनयथी जे गमन करे तेने गाय कहे छे, परंतु गमन तो मनुष्यादिक पण करे छे! एटले
समभिरूढनयथी पर्याय अपेक्षाए ए नाम छे. ते ज प्रमाणे अहीं पण समजवुं.
६ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक