आदि काळ तथा रत्नत्रयादि भाव जे मारे नमस्कार करवा योग्य छे तेने नमस्कार करुं छुं
तथा जे तेथी न्यून विनय करवा योग्य छे तेमनो पण यथायोग्य विनय करुं छुं. ए प्रमाणे
पोताना इष्टनुं सन्मान करी मंगल कर्युं. हवे ए अरहंतादिक इष्ट केवी रीते छे तेनो विचार
करीए छीए.
जे वडे सुख उपजे वा दुःख विणसे ए कार्यनुं नाम प्रयोजन छे. ए प्रयोजननी
जेनाथी सिद्धि थाय ते ज आपणुं इष्ट छे. हवे आ अवसरमां अमने वीतराग विशेष ज्ञाननुं
होवुं ए ज प्रयोजन छे. कारण के एनाथी निराकुल सत्यसुखनी प्राप्ति थाय छे अने सर्व
आकुलतारूप दुःखनो नाश थाय छे.
✾ अरिहंतादिकथी प्रयोजन सिद्धि ✾
वळी ए प्रयोजननी सिद्धि श्री अरिहंतादिक वडे थाय छे. केवी रीते ते अहीं विचारीए
छीए. आत्माना परिणाम त्रण प्रकारना छे. संक्लेश, विशुद्ध अने शुद्ध. तीव्र कषायरूप संकलेश
छे, मंदकषायरूप विशुद्ध छे अने कषायरहित शुद्ध परिणाम छे. हवे वीतराग विशेषज्ञानरूप
पोताना स्वभावना घातक ज्ञानावरणादि घातिकर्मोनो तो संकलेश परिणाम वडे तीव्र बंध थाय
छे, विशुद्ध परिणाम वडे मंद बंध थाय छे वा विशुद्ध परिणाम प्रबल होय तो पूर्वना तीव्र
बंधने पण मंद करे छे; तथा शुद्ध परिणाम वडे बंध थतो ज नथी, केवळ तेनी निर्जरा ज
थाय छे. अरिहंतादिक प्रत्ये जे स्तवनादिरूप भाव थाय छे ते कषायनी मंदतापूर्वक होय छे
माटे ते विशुद्ध परिणाम छे. तथा समस्त कषायभाव मटाडवानुं साधन छे तेथी ते शुद्ध परिणामनुं
कारण पण छे. तो एवा परिणाम वडे पोताना घातक घातिकर्मनुं हीनपणुं थवाथी स्वाभाविकपणे
ज वीतराग विशेषज्ञान प्रगट थाय छे. जेटला अंशे ते (घातिकर्म ) हीन थाय तेटला अंशथी
ते (वीतराग विशेषज्ञान) प्रगट थाय छे. ए प्रमाणे श्री अरिहंतादिक वडे पोतानुं प्रयोजन सिद्ध
थाय छे — अथवा श्री अरिहंतादिकना आकारनुं अवलोकन वा स्वरूप विचार, तेमना वचननुं
श्रवण, निकटवर्ती होवुं अथवा तेमना अनुसार प्रवर्तवुं ए वगेरे कार्य तत्काल ज निमित्तभूत
थई रागादिकने हीन करे छे. जीव – अजीवादिकनुं विशेष ज्ञान उपजावे छे माटे ए प्रमाणे पण
श्री अरिहंतादिक वडे वीतराग विशेषज्ञानरूप प्रयोजननी सिद्धि थाय छे.
प्रश्नः — तेमनाथी एवा प्रयोजननी तो ए प्रमाणे सिद्धि थाय छे; परंतु जे वडे
इन्द्रियजनित सुख उपजे वा दुःख विणसे एवा प्रयोजननी सिद्धि तेमनाथी थाय छे के
नहि?
उत्तरः — अर्हंतादिकमां जे स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम थाय छे, जेनाथी अघाति-
कर्मोनी शाता आदि पुण्य प्रकृतिओनो बंध थाय छे, वळी जो ते परिणाम तीव्र होय तो पूर्वे
जे अशाता आदि पापप्रकृति बांधी हती तेने पण मंद करे छे, अथवा नष्ट करी पुण्य-प्रकृतिरूपे
८ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक