‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ नामना ग्रंथनो उद्योत करीए छीए. त्यां ‘आ ग्रंथ प्रमाण छे’ एवी प्रतीति
कराववा अर्थे पूर्व अनुसारनुं स्वरूप निरूपण करीए छीए.
करीए छीए.
ते पण अनादिनिधन छे. जेम ‘‘जीव’’ एवुं अनादिनिधन पद छे ते जीवने जणाववावाळुं
छे. ए प्रमाणे पोतपोताना सत्य अर्थनां प्रकाशक जे अनेक पद तेनो जे समुदाय छे तेने
श्रुत जाणवुं. वळी जेम मोती तो स्वयंसिद्ध छे तेमांथी कोई थोडां मोतीने, कोई घणां मोतीने,
कोई कोई प्रकारे तथा कोई कोई प्रकारे गूंथी घरेणुं बनावे छे, तेम पद तो स्वयंसिद्ध छे,
तेमांथी कोई थोडां पदोने, कोई घणां पदोने, कोई कोई प्रकारे तथा कोई कोई प्रकारे गूंथी
(जोडी वा लखी) ग्रंथ बनावे छे, तेम हुं पण ए सत्यार्थ पदोने मारी बुद्धि अनुसार गूंथी
ग्रंथ बनावुं छुं. तेमां हुं मारी बुद्धिपूर्वक कल्पित जूठा अर्थनां सूचक पदो गूंथतो नथी माटे
आ ग्रंथ प्रमाणरूप जाणवो.
पदोना अर्थनुं ज्ञान थाय एवो तीर्थंकर केवळीनो दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश थाय छे ते अनुसार
गणधरदेव अंग-प्रकीर्णकरूप ग्रंथ-रचना करे छे. वळी तद्नुसार अन्य अन्य आचार्यादिक नाना
प्रकारे ग्रंथादिकनी रचना करे छे. तेने कोई अभ्यासे छे, कोई कहे छे तथा कोई सांभळे छे.
ए प्रमाणे परम्परा मार्ग चाल्यो आवे छे.
जीवोने दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देवा लाग्या. जे सांभळवानुं निमित्त पामीने श्री गौतमगणधरे
अगम्य अर्थने पण जाणी धर्मानुरागवश अंग