Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration). Granthani Pramanikata Ane Aagam Parmapara.

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बनी श्री अरिहंतादिकने नमस्कारादिरूप मंगळ कर्युं छे.ए प्रमाणे मंगळाचरण करी हवे सार्थक
‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ नामना ग्रंथनो उद्योत करीए छीए. त्यां ‘आ ग्रंथ प्रमाण छे’ एवी प्रतीति
कराववा अर्थे पूर्व अनुसारनुं स्वरूप निरूपण करीए छीए.
ग्रंथनी प्रामाणिकता अने आगम परंपरा
ए प्रमाणे मंगळाचरण करी हवे सार्थक ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ नामना ग्रंथनो उद्योत करीए
छीए. त्यां ‘आ ग्रंथ प्रमाण छे’ एवी प्रतीति कराववा अर्थे पूर्व अनुसारनुं स्वरूप निरूपण
करीए छीए.
अकारादि उच्चार तो अनादिनिधन छे, कोईए नवा कर्या नथी. एनो आकार लखवो
ते तो पोतानी इच्छानुसार अनेक प्रकाररूप छे, परंतु बोलवामां आवे छे ते अक्षर तो सर्वत्र
सर्वदा ए ज प्रमाणे प्रवर्ते छे के‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः’ अर्थात् वर्ण उच्चारनो संप्रदाय
स्वयंसिद्ध छे. वळी अक्षरोथी नीपजेलां सत्य अर्थनां प्रकाशक पदोना समूहनुं नाम श्रुत छे,
ते पण अनादिनिधन छे. जेम ‘‘जीव’’ एवुं अनादिनिधन पद छे ते जीवने जणाववावाळुं
छे. ए प्रमाणे पोतपोताना सत्य अर्थनां प्रकाशक जे अनेक पद तेनो जे समुदाय छे तेने
श्रुत जाणवुं. वळी जेम मोती तो स्वयंसिद्ध छे तेमांथी कोई थोडां मोतीने, कोई घणां मोतीने,
कोई कोई प्रकारे तथा कोई कोई प्रकारे गूंथी घरेणुं बनावे छे, तेम पद तो स्वयंसिद्ध छे,
तेमांथी कोई थोडां पदोने, कोई घणां पदोने, कोई कोई प्रकारे तथा कोई कोई प्रकारे गूंथी
(जोडी वा लखी) ग्रंथ बनावे छे, तेम हुं पण ए सत्यार्थ पदोने मारी बुद्धि अनुसार गूंथी
ग्रंथ बनावुं छुं. तेमां हुं मारी बुद्धिपूर्वक कल्पित जूठा अर्थनां सूचक पदो गूंथतो नथी माटे
आ ग्रंथ प्रमाणरूप जाणवो.
प्रश्नःए ज पदोनी परंपरा आ ग्रंथ सुधी केवी रीते प्रवर्ते छे?
उत्तरःअनादि कालथी तीर्थंकर केवली थता आव्या छे. तेमनामां सर्वज्ञपणुं होय
छे तेथी तेमने ए पदोनुं तथा तेना अर्थनुं पण ज्ञान होय छे. तथा जे वडे अन्य जीवोने ए
पदोना अर्थनुं ज्ञान थाय एवो तीर्थंकर केवळीनो दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश थाय छे ते अनुसार
गणधरदेव अंग-प्रकीर्णकरूप ग्रंथ-रचना करे छे. वळी तद्नुसार अन्य अन्य आचार्यादिक नाना
प्रकारे ग्रंथादिकनी रचना करे छे. तेने कोई अभ्यासे छे, कोई कहे छे तथा कोई सांभळे छे.
ए प्रमाणे परम्परा मार्ग चाल्यो आवे छे.
हवे आ भरतक्षेत्रमां वर्तमान अवसर्पिणी काळ चाले छे तेमां चोवीस तीर्थंकर थया.
तेमां श्री वर्द्धमान नामना अंतिम तीर्थंकरदेव थया जेओ केवळज्ञान सहित बिराजमान थई
जीवोने दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देवा लाग्या. जे सांभळवानुं निमित्त पामीने श्री गौतमगणधरे
अगम्य अर्थने पण जाणी धर्मानुरागवश अंग
प्रकीर्णनी रचना करी. वळी श्री वर्द्धमान
प्रथम अधिकारः पीठबंध प्ररूपक ][ ११