Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration).

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प्रश्नःकषायभावथी असत्यार्थ पद न मेळवे, परंतु ग्रंथकर्ताने पोताना
क्षयोपशम ज्ञानमां कोई अन्यथा अर्थ भासवाथी असत्यार्थ पद मेळवे तेनी तो परम्परा
चाले?
उत्तरःमूल ग्रंथकर्ता गणधरदेव तो पोते चार ज्ञानना धारक छे तथा साक्षात्
केवलीनो दिव्यध्वनि उपदेश सांभळे छे, जेना अतिशय वडे तेमने सत्यार्थ ज भासे छे, ते
अनुसार तेओ ग्रंथ-रचना करे छे. हवे ए ग्रंथमां तो असत्यार्थ पद केवी रीते गूंथी शकाय?
तथा अन्य आचार्यादि ग्रंथ-रचना करे छे तेओ पण यथायोग्य सम्यग्ज्ञानना धारक छे. वळी
तेओ मूळ ग्रंथोनी परम्परा द्वारा ग्रंथ-रचना करे छे, जे पदोनुं पोताने ज्ञान न होय तेनी तो
तेओ रचना करता नथी, पण जे पदोनुं ज्ञान होय तेने ज सम्यग्ज्ञानप्रमाणपूर्वक बराबर गूंथे
छे. हवे प्रथम तो एवी सावधानतामां असत्यार्थ पद गूंथ्यां जाय नहि तथापि कदाचित् पोताने
पूर्व ग्रंथोनां पदोनो अर्थ अन्यथा ज भासे अने पोतानी प्रमाणतामां पण ते ज प्रमाणे बेसी
जाय तो तेनुं कांई तेने वश नथी. परंतु एम कोईकने ज भासे, सर्वने नहि. माटे जेने सत्यार्थ
भास्यो होय ते तेनो निषेध करी परंपरा चालवा दे नहि. वळी आटलुं विशेष जाणवुं के
जेने
अन्यथा जाणवाथी जीवनुं बूरुं थाय एवां देवगुरुधर्मादिक वा जीवअजीवादिक तत्त्वोने तो
श्रद्धाळु जैनी अन्यथा जाणे ज नहि, एनुं तो जैनशास्त्रोमां प्रसिद्ध कथन छे. तथा जेने भ्रमथी
अन्यथा जाणवा छतां पण, तेने जिननी आज्ञा मानवाथी जीवनुं बूरुं न थाय एवा कोई सूक्ष्म
अर्थमां कोईने कोई अर्थ अन्यथा प्रमाणमां लावे तोपण तेनो विशेष दोष नथी. श्री
गोम्मटसारमां पण कह्युं छे केः
सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ।।२७।। (जीवकांड)
अर्थः‘‘सम्यग्द्रष्टि जीव उपदेशित सत्य प्रवचनने श्रद्धान करे छे तथा
अजाणमान गुरुना योगथी असत्यने पण श्रद्धान करे छे.’’
वळी मने पण विशेषज्ञान नथी तथा जिनआज्ञा भंग करवानो घणो भय छे, परंतु
ए ज विचारना बळथी आ ग्रन्थ रचवानुं साहस करूं छुं. तेथी आ ग्रन्थमां जेवुं पूर्व ग्रन्थोमां
वर्णन छे तेवुं ज वर्णन करीश, अथवा कोई ठेकाणे पूर्व ग्रन्थोमां सामान्य गूढ वर्णन छे तेनो
विशेषभाव प्रगट करी अहीं वर्णन करीश. ए प्रमाणे वर्णन करवामां हुं घणी सावधानी राखीश
तेम छतां कोई ठेकाणे सूक्ष्म अर्थनुं अन्यथा वर्णन थई जाय तो विशेष बुद्धिमान होय तेओ
तेने बराबर करी शुद्ध करे एवी मारी प्रार्थना छे. ए प्रमाणे आ शास्त्र रचवानो निश्चय कर्यो.
हवे केवां शास्त्र वांचवासांभळवा योग्य छे तथा ते शास्त्रना वक्ताश्रोता केवा जोईए
ते अहीं कहुं छुं.
१४ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक