व्याख्यान करी पोतानुं प्रयोजन साधवानो ज अभिप्राय रहे. वळी श्रोताओथी वक्ताओनुं पद
ऊंचुं छे. परंतु जो वक्ता लोभी होय तो ते श्रोताथी हीन थई जाय अने श्रोता ऊंचा थाय.
वळी तेनामां तीव्र क्रोध
करे अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारथी विचारपूर्वक प्रश्न करे तो मिष्ट वचन द्वारा जेम तेनो
संदेह दूर थाय तेम समाधान करे तथा जो पोतानामां उत्तर आपवानुं सामर्थ्य न होय, तो
एम कहे के
दर्शावशो. कारण के आम न होय अने अभिमानपूर्वक पोतानी पंडितता जणाववा जो प्रकरण
विरुद्ध अर्थ उपदेशे तो विरुद्ध श्रद्धान थवाथी श्रोताओनुं बूरुं थाय अने जैनधर्मनी निंदा पण
थाय. अर्थात् जो एवो न होय तो श्रोतानो संदेह दूर थाय नहि, पछी कल्याण तो क्यांथी
थाय? तथा जैनमतनी प्रभावना पण थाय नहि. वळी जेनामां अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्योनी
प्रवृत्ति न होय, कारण लोकनिंद्य कार्यो वडे ते हास्यनुं स्थानक थई जाय तो तेना वचनने प्रमाण
कोण करे? उलटो जैनधर्मने लजावे. वळी ते कुलहीन, अंगहीन अने स्वर भंगतावाळो न होय
पण मिष्टवचनी तथा प्रभुतायुक्त होय ते ज लोकमां मान्य होय. जो एवो न होय तो
वक्तापणानी महत्ता शोभे नहि. ए प्रमाणे उपरना गुणो तो वक्तामां अवश्य जोईए. श्री
आत्मानुशासनमां पण कह्युं छे केः
प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः
ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः
उपशमवंत होय, प्रश्न थतां पहेलां ज उत्तरने जे जाणतो होय, बाहुल्यपणे अनेक
प्रश्नोनो सहन करवावाळो होय, प्रभुतायुक्त होय, परना वा पर द्वारा पोताना
निंदारहितपणावडे परना मननो हरवावाळो होय, गुणनिधान होय अने स्पष्टमिष्ट
जेनां वचन होय एवो सभानो नायक धर्मकथा कहे.