वळी वक्तानां विशेष लक्षण आ प्रमाणे छे के — जो व्याकरण – न्यायादिक वा मोटां मोटां
जैनशास्त्रोनुं तेने विशेष ज्ञान होय तो विशेषपणे वक्तापणुं शोभे. वळी ए उपरांत
अध्यात्मरसद्वारा पोताना स्वरूपनुं यथार्थ अनुभवन जेने न थयुं होय ते पुरुष जैनधर्मना मर्मने
न जाणतां मात्र पद्धति द्वारा ज वक्ता थाय छे, तो तेनाथी अध्यात्मरसमय साचा जैनधर्मनुं
स्वरूप केवी रीते प्रगट थाय? माटे आत्मज्ञानी होय तो साचुं वक्तापणुं होय, कारण श्री
प्रवचनसारमां पण कह्युं छे के — आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान अने संयमभाव ए त्रणे
आत्मज्ञानशून्य कार्यकारी नथी. वळी दोहा पाहुडमां पण कह्युं छे केः —
पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वितुस कंडिया ।
पय अत्थं तुट्ठोसि परमत्थ ण जाणइ मूढोसि ।।८५।।
अर्थः — हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तुं कणने छोडी मात्र तुस ज खांडे छे
अर्थात् तुं अर्थ अने शब्दमां ज संतुष्ट छे पण परमार्थ जाणतो नथी माटे मूर्ख
ज छे.
वळी चौद विद्यामां पण पहेलां अध्यात्मविद्या प्रधान कही छे, माटे अध्यात्मरसनो रसिक
वक्ता होय ते ज जैनधर्मना रहस्यनो वक्ता जाणवो. वळी जे वक्ता बुद्धिॠद्धिना धारक होय
तथा अवधि, मनःपर्यय अने केवळज्ञानना धणी होय ते महा वक्ता जाणवा. एवा वक्ताओना
विशेष गुण जाणवा. ए विशेष गुणधारी वक्तानो संयोग मळी आवे तो घणुं ज सारुं, पण
न मळे तो श्रद्धानादिक गुणोना धारक वक्ताओना ज मुखथी शास्त्र श्रवण करवुं. एवा गुणवंत
मुनि वा श्रावकना मुखथी तो शास्त्र श्रवण करवुं योग्य छे पण १पद्धतिबुद्धिवडे वा शास्त्र
सांभळवाना लोभथी श्रद्धानादि गुणरहित पापी पुरुषोनां मुखथी शास्त्र सांभळवुं उचित नथी
कह्युं छे केः —
तं जिण आणपरेणय धम्मो सो यच्च सुगुरु पासम्मि ।
अह उचिओ सद्धाओ तत्सुवएसस्स कहगाओ ।।
अर्थः — जे जिनआज्ञा मानवामां सावधान छे तेमणे निर्ग्रंथ सुगुरुना
निकटमां ज धर्म श्रवण करवो योग्य छे, अथवा ए सुगुरुना ज उपदेशने कहेवावाळा
उचित श्रद्धाळु श्रावकना मुखथी धर्म श्रवण करवा योग्य छे. एवो धर्मबुद्धिवान वक्ता
उपदेशदाता होय ते ज पोतानुं अने अन्य जीवोनुं भलुं करे छे. पण जे कषायबुद्धि
प्रथम अधिकारः पीठबंध प्ररूपक ][ १७
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१.आ ग्रंथमां केटलेक स्थळे ‘पद्धतिबुद्धि’ शब्द आवे छे. तेनो अर्थ — पद्धति एटले, परंपरा या
रीतरिवाज तेने अनुसरवाने टेवायेली बुद्धि एवो समजवो जोईए.