Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration). Shrotanu Swaroop.

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वडे उपदेश आपे छे ते पोतानुं अने अन्य जीवोनुं बूरुं करे छे.
ए प्रमाणे वक्तानुं स्वरूप कह्युं.
श्रोतानुं स्वरुप
हवे श्रोतानुं स्वरूप कहे छेःभलुं थवा योग्य छे तेथी जे जीवने एवो विचार आवे
छे केहुं कोण छुं? क्यांथी आवी अहीं जन्म धर्यो छे? मरीने क्यां जईश? मारुं स्वरूप
शुं छे? आ चारित्र केवुं बनी रह्युं छे? मने जे आ भावो थाय छे तेनुं फळ शुं आवशे?
तथा आ जीव दुःखी थई रह्यो छे तो ए दुःख दूर थवानो उपाय शुं छे? मारे आटली वातनो
निर्णय करी जेथी कंईक मारुं हित थाय ए ज करवुं. एवा विचारथी कोई जीव उद्यमवंत थयो
छे. वळी ए कार्यनी सिद्धि शास्त्र सांभळवाथी थती जाणी अति प्रीतिपूर्वक शास्त्र सांभळे छे.
कांई पूछवुं होय तो पूछे छे. वळी गुरुए कहेला अर्थने पोताना अंतरंगमां वारंवार विचारे
छे अने पोताना विचारथी सत्य अने अर्थनो निश्चय करी कर्तव्य होय तेमां उद्यमी थाय छे.
ए प्रमाणे तो नवीन श्रोतानुं स्वरूप जाणवुं.
वळी जे जैनधर्मनो द्रढ श्रद्धाळु छे, नाना (अनेक) प्रकारनां शास्त्र सांभळवाथी जेनी बुद्धि
निर्मळ थई छे, व्यवहारनिश्चयादिकनुं स्वरूप यथार्थपणे जाणी सांभळेला अर्थने यथावत् निश्चय
जाणी अवधारे छे, प्रश्न ऊपजे तो अति विनयवान थई प्रश्न करे छे अथवा परस्पर अनेक
प्रश्नोत्तरवडे वस्तुनो निर्णय करे छे, शास्त्राभ्यासमां अति आसक्त छे तथा धर्मबुद्धिपूर्वक निंद्य
कार्योनो त्यागी थयो छे; एवा जीवो शास्त्रना श्रोता जोईए.
वळी श्रोतानां विशेष लक्षणो आ प्रमाणे पण छे. जेने कंईक व्याकरणन्यायादिकनुं वा
महान जैनशास्त्रोनुं ज्ञान होय तो श्रोतापणुं विशेष शोभे. वळी एवो होवा छतां पण जो तेने
आत्मज्ञान न होय तो उपदेशनो मर्म समजी शके नहि. माटे आत्मज्ञानवडे जे स्वरूपनो
आस्वादी थयो छे ते जैनधर्मना रहस्यनो श्रोता छे. वळी जे अतिशयवंत बुद्धिवडे वा अवधि
मनःपर्ययज्ञान वडे संयुक्त होय ते महान श्रोता जाणवो. ए प्रमाणे श्रोताना विशेष गुणो
छे. अने एवा जैनशास्त्रना श्रोता जोईए.
वळी शास्त्र सांभळवाथी अमारुं भलुं थशे एवी बुद्धिवडे जे शास्त्र सांभळे छे पण
ज्ञाननी मंदताथी विशेष समजी शकता नथी तेने पुण्यबंध थाय छे, परंतु पोतानुं विशेष कार्य
सिद्ध थतुं नथी.
वळी कुळप्रवृत्तिपूर्वक वा सहज योग बनी आवतां शास्त्र सांभळे छे. वा सांभळवा छतां
कंई अवधारण करता नथी तेने परिणाम अनुसार कोई वेळा पुण्यबंध थाय छे तथा कोई वेळा
पापबंध थाय छे.
१८ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक