Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration).

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उद्योत कर्यो. वळी जेम दीपकने दीपक जोडवाथी दीपकोनी परम्परा प्रवर्ते छे, तेम ए ग्रन्थो
उपरथी आचार्यादिकोथी अन्य ग्रन्थो रचायां. वळी तेनाथी कोईए अन्य ग्रन्थो रच्यां. ए प्रमाणे
ग्रन्थोथी ग्रन्थ थतां ग्रन्थोनी परम्परा प्रवर्ते छे. तेम हुं पण पूर्व ग्रन्थ उपरथी आ ग्रन्थ बनावुं
छुं. वळी जेम सूर्य वा सर्व दीपको मार्गने एक ज रूपे प्रकाशे छे, तथा दिव्यध्वनि वा सर्व ग्रन्थो
मार्गने एक ज रूपे प्रकाशे छे, तेम आ ग्रन्थ पण मोक्षमार्गने प्रकाशे छे. वळी नेत्ररहित वा
नेत्रविकार सहित पुरुषने प्रकाश होवा छतां पण मार्ग सूझतो नथी, तेथी कांई दीपकनो
मार्गप्रकाशकपणानो अभाव थयो नथी, तेम प्रगट करवा छतां पण जे मनुष्य ज्ञानरहित वा
मिथ्यात्वादि विकार सहित छे तेने मोक्षमार्ग सूझतो नथी, तेथी कांई ग्रन्थनो मोक्षमार्गप्रकाशक-
पणानो अभाव थयो नथी. ए प्रमाणे आ ग्रन्थनुं ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ ए नाम सार्थक जाणवुं.
प्रश्नःमोक्षमार्गना प्रकाशक पूर्व ग्रन्थो तो हता ज, तमे नवीन ग्रन्थ शा माटे
बनावो छो?
उत्तरःजेम मोटा दीपकोनो उद्योत घणा तेलादिकना साधन वडे रहे छे, पण जेने
घणा तेलादिकनी शक्ति न होय तेने नानो दीपक सळगावी आपीए तो ते तेनुं साधन राखी
तेना उद्योतथी पोतानुं कार्य करी शके, तेम महान ग्रन्थोनो प्रकाश तो घणा ज्ञानादि साधन वडे
रहे छे पण जेने घणा ज्ञानादिकनी शक्ति न होय तेने लघु ग्रन्थ बनावी आपीए तो ते तेनुं
साधन राखी तेना प्रकाशथी पोतानुं कार्य करी शके. माटे आ सुगम लघु ग्रन्थ बनावीए छीए.
वळी कषायपूर्वक पोतानुं मान वधारवा, लोभ साधवा, यश वधारवा के पोतानी पद्धति साचववा
हुं आ ग्रन्थ बनावतो नथी, पण जेने व्याकरण
न्यायादिक, नयप्रमाणादिकनुं वा विशेष अर्थोनुं
ज्ञान नथी तेनाथी महान ग्रन्थोनो तो अभ्यास बनी शके नहि तथा कोई नाना ग्रन्थोनो अभ्यास
बने छतां तेनो यथार्थ अर्थ भासे नहि एवा आ समयमां मंद बुद्धिमान जीवो घणा जोवामां
आवे छे, तेमनुं भलुं थवा अर्थे धर्मबुद्धिपूर्वक आ भाषामय ग्रन्थ बनावुं छुं.
वळी जेम कोई महान दरिद्रीने अवलोकन मात्र चिंतामणिनी प्राप्ति थाय छतां ते न
अवलोके तथा जेम कोई कोढीआने अमृतपान कराववा छतां पण ते न करे तेम संसारपीडित
जीवने सुगम मोक्षमार्गना उपदेशनुं निमित्त बने छतां ते अभ्यास न करे तो तेना अभाग्यनो
महिमा कोण करी शके? तेनुं तो होनहार ज विचारी पोताने समता आवे. कह्युं छे केः
साहीणे गुरुजोगे जे ण सुणंतीह धम्मवयणाइ
ते धिट्ठदुट्ठचित्ता अह सुहडा भवभयविहुणा ।।
अर्थःस्वाधीन उपदेशदाता गुरुनो योग मळवा छतां पण जे जीव
धर्मवाक्योने नथी सांभळतो ते धीठ अने दुष्टचित्त छे. अथवा जे संसारभयथी श्री
प्रथम अधिकारः पीठबंध प्ररूपक ][ २३