क्षेत्रनो विषय होय तेटला क्षेत्रमां जे वर्तमान स्थूल पोताने जाणवा योग्य पुद्गलस्कंध होय तेने
ज जाणे छे.१ तेमां पण जुदी जुदी इन्द्रियोवडे जुदा जुदा काळमां कोईक स्कंधना स्पर्शादिकनुं
जाणवुं थाय छे. वळी मनवडे पोताने जाणवा योग्य किंचित्मात्र त्रिकाल संबंधी दूर वा
समीपक्षेत्रवर्ती रूपी – अरूपी द्रव्य वा पर्यायने अत्यंत स्पष्ट जाणे छे. ते पण इन्द्रियोवडे जेनुं
ज्ञान थयुं होय वा अनुमानादिक जेनुं कर्युं होय तेने ज जाणी शके. कदाचित् पोतानी कल्पनावडे
असत्ने जाणे. जेम स्वप्नमां वा जागृतिमां पण जे कदाचित् क्यांय पण न होय एवा आकारादिक
चिंतवे छे वा जेवा नथी तेवा माने छे — ए प्रमाणे मनवडे जाणवुं थाय छे. ए इन्द्रियो तथा
मनद्वारा जे ज्ञान थाय छे तेनुं नाम मतिज्ञान छे. त्यां पृथ्वी, जळ, अग्नि, पवन अने
वनस्पतिरूप एकेन्द्रियोने स्पर्शनुं ज ज्ञान छे. इयळ, शंख आदि बेइन्द्रिय जीवोने स्पर्श अने
रसनुं ज्ञान छे. कीडी, मकोडा आदि तेइन्द्रिय जीवोने स्पर्श, रस अने गंधनुं ज्ञान छे. भमरो,
माखी अने पतंगादिक चौरेन्द्रिय जीवोने स्पर्श, रस, गंध अने वर्णनुं ज्ञान छे. तथा मच्छ,
गाय, कबूतर आदि तिर्यंच तथा मनुष्य, देव, नारकी आदि पंचेन्द्रिय जीवोने स्पर्श, रस, गंध,
वर्ण अने शब्दनुं ज्ञान छे. वळी तिर्यंचोमां कोई संज्ञी छे तथा कोई असंज्ञी छे. तेमां संज्ञीओने
तो मनजनित ज्ञान होय छे पण असंज्ञीओने नहि. तथा मनुष्य, देव अने नारकी जीवो संज्ञी
ज छे ते सर्वने मनजनित ज्ञान होय छे. ए प्रमाणे मतिज्ञाननी प्रवृत्ति जाणवी.
✾ श्रुतज्ञाननी पराधाीन प्रवृत्ति ✾
वळी मतिज्ञान वडे जे अर्थने जाण्यो होय तेना संबंधथी अन्य अर्थने जे वडे जाणीए
बीजो अधिकारः संसार-अवस्था निरूपण ][ ३७
१. पांचे इन्द्रियोना उत्कृष्ट विषयना ज्ञाननुं तथा तेनी आकृतिनुं यंत्र.(गोम्मटसार, जीव. गाथा १७० – १७१)
इन्द्रियोनांएकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियअसंज्ञिपंचेन्द्रियसंज्ञिपंचेन्द्रियप्रत्येकनी
नामधनुषधनुष योजन धनुषयोजन धनुषयोजनआकृति
स्पर्शन४००८००१६००० ३२००० ६४००९अनेक प्रकारनी
रसना०६४१२८०२५६०५१२९खुरपा जेवी
घ्राण०१०००२०००४००९कदंबना फूल जेवी
चक्षु०२९५४ ०५९०८ ०४७२६३ ७/२०मसूरनी दाळ जेवी
श्रोत्र०० ८०००१२जवनी नाली जेवी.
नोटः — अयोध्यानो चक्रवर्ती आभ्यंतर परिधिमां आवेला सूर्यना विमानने ४७२६३ ७/२० योजन दूरथी
जोई शके छे. तेथी चक्षु इन्द्रियनो उत्कृष्ट विषय तेटलो छे. उपर प्रमाणे इन्द्रियविषयोनुं ज्ञान मर्यादित होवाथी
ते महापराधीन छे. उपर प्रमाणे ज प्रत्येक इन्द्रियनी विषय जाणवानी लब्धिनी प्रगटता उत्कृष्टपणे होय छे.
इन्द्र जे आत्मा तेने जाणवानुं जे चिह्न ते इन्द्रिय छे. अथवा इन्द्र जे कर्म तेमांथी नीपजेली – दीधेली ते इन्द्रिय
छे. उपरनी मर्यादाथी अधिक जाणवानी आत्मानी गमे तेटली इच्छा होय तोपण तेथी अधिक इन्द्रियद्वारा ते
जाणी शकतो नथी. तेथी ज इन्द्रियजन्य ज्ञान पराधीन अने कुंठित छे. — अनुवादक.