प्रवर्ततां अन्यथा प्रवर्ते छे. ए प्रमाणे ए मिथ्यादर्शनादिक छे ते ज सर्व दुःखोनुं मूळ कारण
छे. ए केवी रीते? ते अहीं कहीए छीए.
✾ मिथ्यात्वनुं स्वरुप ✾
मिथ्यादर्शनादिकथी जीवने स्व-परनो विवेक थई शकतो नथी. पोते एक आत्मा तथा
अनंत पुद्गलपरमाणुमय शरीर — एना संयोगरूप मनुष्यादिक पर्याय नीपजे छे ते पर्यायने ज
पोतानुं स्वरूप माने छे. आत्माना ज्ञान – दर्शनादि स्वभाव छे ते वडे किंचित् जाणवुं – देखवुं थाय
छे, कर्मउपाधिथी थयेला क्रोधादिभावरूप परिणमन थाय छे, अने शरीरनो स्पर्श, रस, गंध,
वर्ण स्वभाव छे ते प्रगट छे तथा स्थूल – कृषादिक – स्पर्शादिक पलटवारूप अनेक अवस्थाओ थाय
छे ते सर्वने पोतानुं स्वरूप जाणे छे. ज्ञान – दर्शननी प्रवृत्ति इन्द्रिय अने मन द्वारा थाय छे,
तेथी आ जीव माने छे के – त्वचा, जीभ, नासिका, नेत्र, कान अने मन ए बधा मारां अंग
छे, ए वडे हुं देखुं – जाणुं छुं, एवी मान्यताथी इन्द्रियोमां प्रीति होय छे.
✾ मोहजनित विषयअभिलाषा ✾
मोहना आवेशथी ते इन्द्रियो द्वारा विषय ग्रहण करवानी इच्छा थाय छे, त्यां ए
विषयोनुं ग्रहण थतां ए इच्छा मटवाथी निराकुल थाय छे एटले आनंद माने छे. जेम कूतरो
हाड चाववाथी पोतानुं लोही नीकळे तेनो स्वाद लई एम मानवा लागे के ‘‘आ हाडनो स्वाद
आवे छे,’’ तेम आ जीव विषयोने जाणे छे तेथी पोतानुं ज्ञान प्रवर्ते छे तेनो स्वाद लई एम
मानवा लागे के ‘‘आ विषयनो स्वाद छे,’’ पण विषयमां तो स्वाद छे ज नहि. पोते ज इच्छा
करी हती तेने पोते ज जाणी पोते ज आनंद मान्यो, परंतु ‘‘हुं अनादि-अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा
छुं’’ एवो निःकेवल (परथी केवळ भिन्न) ज्ञाननो अनुभव छे ज नहि. परंतु ‘‘ में नृत्य दीठुं,
राग सांभळ्यो, फूल सूंघ्युं, पदार्थ स्पर्श्यो, स्वाद जाण्यो तथा में शास्त्र जाण्यां, मारे आ जाणवुं
जोईए’’ ए प्रकारना ज्ञेयमिश्रित ज्ञानना अनुभववडे विषयोनी तेने प्रधानता भासे छे. ए
प्रमाणे मोहना निमित्तथी आ जीवने विषयोनी इच्छा होय छे.
हवे इच्छा त्रिकालवर्ती सर्व विषयोने ग्रहण करवानी छे के ‘‘हुं सर्वने स्पर्शुं, सर्वने
स्वादुं, सर्वने सूंघुं, सर्वने देखुं, सर्वने सांभळुं अने सर्वने जाणुं.’’ एटली बधी इच्छा होवा
छतां शक्ति तो एटली ज छे के – इन्द्रियोना सन्मुख थयेला वर्तमान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने
शब्दमांथी कोईने किंचित्मात्र ग्रहण करे वा स्मरणादिकवडे मनथी किंचित् जाणे, अने ते पण
बाह्य अनेक कारण मळतां ज सिद्ध थाय. तेथी कोई काळे एनी इच्छा पूर्ण थती नथी. कारण
के एवी इच्छा तो केवळज्ञान थतां ज संपूर्ण थाय पण क्षयोपशमरूप इन्द्रियद्वारा तो कदी पण
इच्छा पूर्ण थाय नहि, अने तेथी मोहना निमित्तथी ए इन्द्रियोने पोतपोताना विषयग्रहणनी
निरंतर इच्छा रह्या ज करवाथी आ जीव आकुल – व्याकुल बनी दुःखी थई रह्यो छे.
४८ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक