तेथी अभिप्रायमां तो अनेक आकुळता निरंतर रह्या ज करे छे. वळी कोई वखते कोई प्रकारे
पोतानी इच्छानुसार परिणमता जोई कोई ठेकाणे आ जीव, ए शरीर – पुत्रादिकमां अहंकार –
ममकार करे छे अने ए ज बुद्धिथी तेने उपजाववानी, वधारवानी तथा रक्षा करवानी चिंतावडे
निरंतर व्याकुळ रहे छे नाना प्रकारनां दुःख वेठीने पण तेमनुं भलुं इच्छे छे. वळी जे
विषयोनी इच्छा थाय छे ते कषायभाव छे, बाह्य सामग्रीमां इष्ट-अनिष्टपणुं माने छे, अन्यथा
उपायो करे छे, साचा उपायनुं श्रद्धान करतो नथी तथा अन्य कल्पना करे छे, ए बधानुं
मूळ कारण एक मिथ्यादर्शन छे. तेनो नाश थतां ए सर्वनो नाश थाय छे. माटे सर्व दुःखोनुं
मूळ ए मिथ्यादर्शन छे. तेना नाशनो उपाय पण कांई करतो नथी. अन्यथा श्रद्धाने सत्य
श्रद्धा मानतो जीव तेना नाशनो उपाय पण शा माटे करे?
वळी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कोई वेळा तत्त्वनिश्चय करवानो उपाय विचारे छतां त्यां
अभाग्यथी, कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्रनुं निमित्त बनी जाय तो ऊलटुं अतत्त्वश्रद्धान पुष्ट थई
जाय. ते तो जाणे के – एनाथी मारुं भलुं थशे परंतु ए एवा उपाय करे के – जेथी आ अचेत
बनी जाय. वस्तुस्वरूप विचारवानो उद्यमी थाय छतां विपरीत विचारमां द्रढ थई जाय छे
अने तेथी विषयकषायनी वासना वधवाथी वधारे दुःखी थाय छे.
कदाचित् सुदेव, सुगुरु, सुशास्त्रनुं निमित्त पण बनी जाय तो त्यां तेमना निश्चय
उपदेशनी तो श्रद्धा करतो नथी, पण मात्र व्यवहारश्रद्धावडे ते अतत्त्वश्रद्धाळु ज रहे छे. त्यां
जो मंद कषाय होय तथा विषयनी इच्छा घटे तो थोडो दुःखी थाय पण पाछो जेवो ने
तेवो बनी जाय. माटे आ संसारी जीव जे उपाय करे छे ते पण जूठा ज होय छे.
वळी आ संसारी जीवनो एक आ उपाय छे के – पोताने जेवुं श्रद्धान छे तेम पदार्थोने
परिणमाववा इच्छे छे. हवे जो ए प्रमाणे ते पदार्थो परिणमे तो तेनुं श्रद्धान साचुं थई
जाय, परंतु अनादिनिधन वस्तु न्यारी न्यारी पोतपोतानी मर्यादापूर्वक परिणमे छे,
कोई कोईने आधीन नथी तेम कोई (पदार्थ) कोईनो परिणमाव्यो परिणमतो नथी,
छतां तेने आ जीव पोतानी इच्छानुसार परिणमाववा इच्छे छे ए कोई उपाय नथी, ए
तो मिथ्यादर्शन ज छे, तो साचो उपाय शो छे?
जेवुं पदार्थनुं स्वरूप छे तेवुं ज श्रद्धान थाय तो ज सर्व दुःख दूर थाय. जेम कोई
मोहमुग्ध बनी मडदांने जीवतुं माने वा तेने जीवाडवा इच्छे तो तेथी पोते ज दुःखी थाय.
पण तेने मडदुं मानवुं वा ते जीवाड्युं जीववानुं नथी एम मानवुं ए ज ए दुःख दूर थवानो
उपाय छे. तेम मिथ्याद्रष्टि बनी पदार्थोने अन्यथा मानी अन्यथा परिणमाववा इच्छे तो पोते
ज दुःखी थाय.
पण तेने यथार्थ मानवा अने ए मारा परिणमाव्या अन्य प्रकारे
परिणमवाना नथी एम मानवुं ए ज ए दुःख दूर थवानो उपाय छे. भ्रमजनित
त्रीजो अधिकारः संसारदुःख अने मोक्षसुख निरूपण ][ ५३