चोथा अधिकारमां मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रना स्वरूपनुं विशेष निरूपण करतां प्रयोजन-
भूत अने अप्रयोजनभूत पदार्थो तथा तेमना आश्रये थनारी रागद्वेषनी प्रवृत्तिनुं स्वरूप
बताव्युं छे.
पांचमा अधिकारमां आगम अने युक्तिना आधारे विविध मतोनी समीक्षा करीने गृहीत
मिथ्यात्वनुं घणुं ज मार्मिक विवेचन कर्युं छे; साथोसाथ अन्य मतना प्राचीन ग्रंथोनां उदाहरणो द्वारा
जैनधर्मनी प्राचीनता तेम ज महत्ता पुष्ट करी छे; श्वेताम्बर संप्रदाय संमत अनेक कल्पनाओ तेम
ज मान्यताओनी समीक्षा करवामां आवी छे; ‘अछेरा’नुं निराकरण करतां केवळीभगवानने आहार-
निहारनो प्रतिषेध तथा मुनिने वस्त्र-पात्रादि उपकरणो राखवानो निषेध कर्यो छे; साथे साथे ढूंढकमत
(स्थानकवासी)नी आलोचना करता मुहपत्तीनो निषेध अने प्रतिमाधारी श्रावक नहि होवानी
मान्यतानुं तथा मूर्तिपूजाना प्रतिषेधनुं निराकरण पण करवामां आव्युं छे.
छठ्ठा अधिकारमां गृहीत मिथ्यात्वनां निमित्त कुगुरु, कुदेव अने कुधर्मनुं स्वरूप बतावीने
तेमनी सेवानो प्रतिषेध करवामां आव्यो छे; तदुपरांत अनेक युक्तिओ द्वारा ग्रह, सूर्य, चंद्र, गाय
अने सर्पादिकनी पूजानुं पण निराकरण कर्युं छे.
सातमा अधिकारमां जैन मिथ्याद्रष्टिनुं सांगोपांग विवेचन कर्युं छे. तेमां सर्वथा एकांत
निश्चयावलंबी जैनाभास तेम ज सर्वथा एकांत व्यवहारावलंबी जैनाभासनुं युक्तिपूर्ण कथन करवामां
आव्युं छे, जे वांचतां ज जैनद्रष्टिनुं जे सत्य स्वरूप ते सामे तरी आवे छे, अने विपरीत कल्पना —
वस्तुस्थितिने अथवा निश्चय-व्यवहार नयोनी द्रष्टिने नहि समजवाथी थई हती ते — निर्मूळ थई
जाय छे. आ महत्त्वपूर्ण प्रकरणमां पंडितजीए जैनोना अभ्यंतर मिथ्यात्वना निरसननुं घणुं रोचक
अने सैद्धांतिक विवेचन कर्युं छे तथा उभय नयोनी सापेक्ष द्रष्टि स्पष्ट करीने देव-शास्त्र-गुरु संबंधी
भक्तिनी अन्यथा प्रवृत्तिनुं निराकरण कर्युं छे. अंतमां सम्यक्त्वसन्मुखमिथ्याद्रष्टिनुं स्वरूप तथा
क्षयोपशम, विशुद्ध, देशना, प्रायोग्य अने करण — ए पांच लब्धिओनो निर्देश करीने आ अधिकार
पूरो करवामां आव्यो छे.
आठमा अधिकारमां प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग अने द्रव्यानुयोग — ए चार
अनुयोगोनुं प्रयोजन, स्वरूप, विवेचन शैली दर्शावीने तेमना संबंधमां थनारी दोषकल्पनाओनो
प्रतिषेध करी, अनुयोगोनी सापेक्ष कथनशैलीनो समुल्लेख कर्यो छे; साथोसाथ आगमाभ्यासनी प्रेरणा
पण आपी छे.
नवमा अधिकारमां मोक्षमार्गना स्वरूप-निरूपणनो आरंभ करतां मोक्षना कारणभूत
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र — ए त्रणेमांथी मोक्षमार्गना मूळकारण-स्वरूप
सम्यग्दर्शननुं पण पूरुं विवेचन लखायुं नथी. खेद छे के ग्रंथकर्तानुं अकाळे मृत्यु थई जवाथी, आ
अधिकार तेम ज ग्रंथने पूरो करी शक्या नथी; ए आपणुं कमनसीब छे. परंतु आ अधिकारमां
जे कांई कथन कर्युं छे ते घणुं ज सरळ अने सुगम छे तेने हृदयंगम करतां सम्यग्दर्शननां विभिन्न
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