सर्व इन्द्रियोना सर्व विषयोनुं युगपत् ग्रहण थतां दुःखनां कारणो पण दूर थयां. जेम नेत्रवडे
पहेलां एक विषयने देखवा इच्छतो हतो, पण हवे त्रणलोकनां त्रिकाळवर्ती सर्व वर्णोने युगपत्
देखे छे, कोई देख्या विनानो रह्यो नथी के जेने देखवानी इच्छा थाय. ए ज प्रमाणे
स्पर्शनादिक इंद्रियोवडे एक एक विषयने ग्रहण करवा इच्छतो हतो, परंतु हवे त्रणलोकना
त्रिकालवर्ती सर्व स्पर्श – रस
– गंध – शब्दादिक विषयोने युगपत् ग्रहण करवा लाग्यो. कोई ग्रहण
कर्या विनानो रह्यो नथी के जेने ग्रहण करवानी इच्छा ऊपजे.
प्रश्नः — शरीरादिक विना ए ग्रहण शी रीते थाय?
उत्तरः — ज्यांसुधी ज्ञान इन्द्रियजनित हतुं त्यांसुधी तो द्रव्य इन्द्रियादि विना ग्रहण
थई शकतुं नहोतुं, पण हवे एवो स्वभाव प्रगट थयो के इन्द्रियो विना ज ग्रहण थई
शके छे.
अहीं कोई एम कहे के — जेम मनवडे तो स्पर्शादिकने जाणीए छीए तेम अहीं
जाणवुं थतुं हशे पण त्वचा – जीभ आदि वडे ग्रहण थाय छे तेम नहि थतुं होय? पण एम
नथी. कारण के – मनवडे तो स्मरणादि थतां कंईक अस्पष्ट जाणवुं थाय छे, परंतु अहीं तो
त्वचा – जीभ आदि वडे स्पर्श – रसादिकने स्पर्शवामां, आस्वादवामां, सूंघवामां, देखवामां अने
सांभळवामां जेवुं स्पष्ट जाणवुं थाय छे तेथी पण अनंतगणुं स्पष्ट जाणवुं तेमने होय छे.
विशेषता ए छे के — त्यां इन्द्रियो अने विषयोनो संयोग थतां ज जाणवुं थतुं हतुं,
हवे अहीं दूर रहेवा छतां पण तेवुं ज जाणवुं थाय छे. ए बधो शक्तिनो महिमा छे.
वळी पहेलां मन वडे कंईक अतीत – अनागतने वा अव्यक्तने जाणवा इच्छतो हतो, पण हवे
बधुंय अनादिथी अनंतकाळ पर्यंत संपूर्ण काळना सर्व पदार्थोना द्रव्य – क्षेत्र – काळ – भावने
युगपत् जाणे छे, कोई जाण्या विना रह्या नथी के जेने जाणवानी इच्छा थाय. ए प्रमाणे
दुःख अने दुःखनां कारणोनो तेमने अभाव जाणवो.
वळी पहेलां मोहना उदयथी मिथ्यात्व वा कषायभाव थतो हतो, पण तेनो सर्वथा
अभाव थवाथी दुःखनो पण अभाव तथा तेनां कारणोनो पण अभाव थवाथी दुःखना
कारणोनो पण अभाव थयो. ए कारणोनो अभाव अहीं बतावीए छीए.
सर्व तत्त्वो अहीं यथार्थ प्रतिभासे छे तो तेमने अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व केम थाय?
कोई अनिष्टरूप रह्यो नथी, निंदक पोते ज अनिष्ट पामे छे तो पोते क्रोध कोनाथी करे?
सिद्धोथी ऊंचो कोई छे नहि; इन्द्रादिक देवो पण जेने नमे छे अने इष्ट फळ पामे छे,
तो पछी तेओ कोनाथी मान करे? कोई अन्य इष्ट रह्युं नथी तो कोना माटे तेओ छळ
(माया) करे? सर्व भवितव्य प्रत्यक्ष भासी गयुं छे, कोई कार्य रह्युं नथी के कोईथी
७४ ][ मोक्षमार्गप्रकाशक
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