Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration). Mithyadarshanani Pravrutti.

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तेनो उपाय पण ते न करे, जेथी संसारमां कर्मबंधनथी उत्पन्न थतां दुःखोने ज ते सहन करे,
माटे मोक्षतत्त्वने जाणवुं आवश्यक छे. ए प्रमाणे जीवादिक सात तत्त्वो जाणवां आवश्यक छे.
वळी शास्त्रादिवडे कदाचित् तेने जाणे पण ‘‘ते एम ज छे’’ एवी प्रतीति न आवी
तो जाणवाथी पण शुं थाय? माटे तेनुं श्रद्धान करवुं कार्यकारी छे. ए प्रमाणे ए जीवादिक
तत्त्वोनुं सत्य श्रद्धान करवाथी ज दुःखनो अभाव थवारूप प्रयोजननी सिद्धि थाय छे. माटे
जीवादिक पदार्थो छे ते ज प्रयोजनभूत जाणवा.
वळी तेना विशेष भेद पुण्यपापादिरूप छे तेनुं श्रद्धान पण प्रयोजनभूत छे, कारण
केसामान्यथी विशेष बळवान छे ए प्रमाणे ए पदार्थो प्रयोजनभूत छे, कारण केतेनुं यथार्थ
श्रद्धान करवाथी तो दुःख थतुं नथी, सुख थाय छे अने तेना यथार्थ श्रद्धान कर्या विना दुःख
थाय छे, सुख थतुं नथी.
तथा ए सिवायना बीजा पदार्थो छे ते अप्रयोजनभूत छे तेथी तेनुं यथार्थ श्रद्धान
करो वा न करो; तेनुं श्रद्धान कंई सुखदुःखनुं कारण नथी.
प्रश्नःपूर्वे जीवअजीव पदार्थो कह्यां तेमां तो सर्व पदार्थो आवी गया तो
ए विना अन्य पदार्थो कया रह्या के जेने अप्रयोजनभूत कह्या छे?
उत्तरःपदार्थ तो सर्व जीवअजीवमां ज गर्भित छे, परंतु ए जीवअजीवना
विशेषो (भेदो) घणा छे; तेमां जे विशेषो सहित जीवअजीवनुं यथार्थ श्रद्धान करतां स्व
परनुं श्रद्धान थाय, रागादिक दूर करवानुं श्रद्धान थाय तेथी सुख ऊपजे तथा तेने अयथार्थ
श्रद्धान करतां स्व
परनुं श्रद्धान न थाय, रागादिक दूर करवानुं श्रद्धान न थाय, तेथी दुःख
ऊपजे, ए विशेषो सहित जीवअजीव पदार्थ तो प्रयोजनभूत समजवा.
तथा जे विशेषो सहित जीवअजीवनुं यथार्थ श्रद्धान करवाथी वा न करवाथी स्व
परनुं श्रद्धान थाय वा न थाय, रागादिक दूर करवानुं श्रद्धान थाय वा न थाय, जेनो कांई
नियम नथी, एवा विशेषो सहित जीव
अजीव पदार्थ अप्रयोजनभूत समजवा.
जेम जीव अने शरीरनुं तेना चैतन्य तथा मूर्तत्वादि विशेषो वडे श्रद्धान करवुं तो
प्रयोजनभूत छे तथा मनुष्यादि पर्यायो तथा घटपटादिनुं अवस्थाआकारादि विशेषो वडे श्रद्धान
करवुं अप्रयोजनभूत छे. एम अन्य पण समजवुं.
ए प्रमाणे कहेलां जे प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वो तेना अयथार्थ श्रद्धानने मिथ्यादर्शन
जाणवुं.
मिथ्यादर्शननी प्रवृत्ति
हवे संसारी जीवोने मिथ्यादर्शननी प्रवृत्ति केवी होय छे ते अहीं कहीए छीए. अहीं
चोथो अधिकारः मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रनुं विशेष निरूपण ][ ८१