वह अभिप्राय छुड़ानेका है। वे स्वयं ही इस संबंधमें इस प्रकार लिखते हैं कि : ‘‘यहाँ
नाना प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंका कथन किया है, उसका प्रयोजन इतना ही जानना कि
परन्तु अन्यके ऐसे दोष देख कषायी नहीं होना; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामोंसे
होता है; यदि अन्यको रुचिवान देखे तो कुछ उपदेश देकर उनका भी भला करे।’’
कुशाग्रबुद्धिके प्रभावसे उन्होंने षड्दर्शनके ग्रंथ, बौद्ध, मुस्लिम तथा अन्य अनेक मतमतान्तरोंके
ग्रंथोंका अध्ययन किया था, श्वेताम्बर
गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र, अष्टपाहुड़, आत्मानुशासन, पद्मनंदिपंचविंशतिका, श्रावकमुनिधर्मके प्ररूपक
अनेक शास्त्रोंका तथा कथा-पुराणादिक अनेक शास्त्रोंका अभ्यास किया था। इन सर्व शास्त्रोंके
अभ्याससे आपकी बुद्धि बहुत ही प्रखर बनी थी। शास्त्रसभा, व्याख्यानसभा और विवादसभामें
आप बहुत ही प्रसिद्ध थे। इस असाधारण प्रभावकपनेके कारण आप तत्कालीन राजाको
भी अतिशय प्रिय हो गये थे। इस राजप्रियता तथा पांडित्यप्रखरताके कारण अन्यधर्मी आपके
साथ मत्सरभाव करने लगे थे, क्योंकि आपके सामने उन अन्यधर्मीयोंके बड़े-बड़े विद्वान भी
पराभव हो जाते थे। यद्यपि आप स्वयं किसी भी विधर्मीयोंका अनुपकार नहीं करते थे;
परन्तु बने जहाँ तक उनका उपकार ही किया करते थे, तो भी मात्सर्ययुक्त मनुष्योंका
मत्सरताजन्य कृत्य करनेका ही स्वभाव है; उनके मत्सर व वैरभावके कारण ही पंडितजीका
अकालिक देहान्त हो गया था।
तामै सबै श्रावगी कैद, करिके दंड किये नृप कैद।।
गुरु तेरह-पंथनुको भ्रमी, टोडरमल्ल नाम साहिमी।
ताहि भूप मार्यो पल मांहि, गाडयो महि गंदगी ताहि।।’’