इसलिये उन्होंने एक गुप्त ‘षड़यंत्र’ रचा। उन्होंने शिवपिंडीको उखाड़कर जैनों पर ‘उखाड़
डालनेका’ आरोप लगाया और राजा माधवसिंहको, जैनोंके विरुद्ध उकसाकर क्रोधित किया।
राजाने सत्यासत्यकी कुछ भी जानकारी प्राप्त किये बिना ही क्रोधवश सभी जैनोंको रात्रिमें
कैदकर लिया तथा उनके प्रसिद्ध विद्वान पंडित टोडरमल्लजीको पकड़कर मार डालनेका हुकम
दे दिया। तदनुसार पंडितजीको हाथीके पाँवके नीचे कचरवाकर मरवा डाला और उनके शबको
शहरकी गंदकीमें दटवा दिया।
एकदम चिल्लाकर रुक गया। इस तरह दो बार वह अंकुशके प्रहार खा चुका, परन्तु पंडितजी
पर अपने पाँवका प्रहार नहीं किया। उस पर अंकुशके तीसरे प्रहार पड़नेकी तैयारी थी,
वहाँ पंडितजीने हाथीकी दशा देखकर कहा कि
यह वाक्य सुनकर हाथीने अपना काम किया। राजा माधवसिंह (प्रथम)को जब इस
‘षड़यंत्र’के बारेमें ज्ञात हुआ तब उन्हें बहुत ही दुःख हुआ और अपने अधम कृत्य पर
वे बहुत पछताये।
विज्ञान भाव इतना बढ़ गया था कि सांसारिक कार्योंसे वे स्वयं प्रायः विरक्त ही रहा करते
थे; और धार्मिक कार्योंमें इतने तल्लीन रहा करते थे कि बाह्य जगतकी और आस्वाद्य पदार्थोंकी
उनको कुछ भी सुध नहीं रहती थी। इस विषयमें एक जनश्रुति ऐसी भी है कि
डालना छोड़ दिया था। छ मास पश्चात् शास्त्ररचनाकी ओरसे आपका उपयोग कुछ हटते
एक दिन आपने माताजीसे पूछा : ‘माजी! आज आपने दालमें नमक क्यों नहीं डाला?’
यह सुन माताजी बोली : ‘बेटा, मैं तो छ माससे नमक नहीं डालती हूँ’। यह सब लिखनेका
तात्पर्य इतना ही है कि, आपके समयमें आप एक महान धर्मात्मा, श्रेष्ठ, परोपकारी, निरभिमानी
तथा अद्वितीय विद्वान थे। जैनसमाजके दुर्भाग्यसे ही ऐसे महात्माका असमय ही वियोग हुआ,
परन्तु आपने स्वयंने तो जीवनपर्यन्त जैन समाज पर अनन्य उपकार किया है और इसलिये