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ही समाजमें आपका स्थान अविस्मरणीय है। मुमुक्षु जीव तो आज भी आपका व आपके
गुणोंका स्मरण कर परम संतुष्ट होते हैं।
पंडित श्री टोड़रमलजी द्वारा रचित यह ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथ ढुंढ़ारी तथा हिन्दी
भाषामें अनेकबार प्रकाशित हो चुका है। ‘श्री दि. जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्टने भी इसे गुजरातीमें
नौ बार प्रकाशित किया है। पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीके करकमलमें यह ग्रंथ सर्वप्रथम
विक्रम संवत १९८२में आया। उन्होंने बहुत ही मननपूर्वक इस ग्रंथका गहरा अवगाहन किया
था। इसका अवगाहन करते समय पूज्य गुरुदेवश्रीकी परिणति इतनी तल्लीन हो गई थी
कि – उनको न भाये खाना, न भाये पीना या न भाये अन्य कुछ भी कार्य और न भाये
अन्य कुछ भी बातचीत। स्थानकवासी साधुपर्यायमें वे पुस्तक साथमें नहीं रखते थे, परन्तु
मोक्षमार्ग-प्रकाशकका सातवाँ अधिकार विशेष अच्छा लगनेसे (हाथसे बारिक अक्षरोंसे लिखा)
उसे पुनः पुनः स्वाध्याय करने हेतु साथमें रखा था।
इस तरह पूज्य गुरुदेवश्रीको मोक्षमार्ग-प्रकाशक पर अत्यन्त भक्ति होनेसे इस ग्रंथके
भावोंमें कोई परिवर्तन न हो जाय इस तरह प्रमाणिक अनुवाद करानेका पूज्य गुरुदेवश्रीके
अनुरोधसे निर्णय लिया गया। अतः पंडितजीकी स्वहस्तलिखित प्रति कि जिसकी फोटो-प्रिन्ट
कोपी दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ द्वारा कराई गई थी, उसीके आधारसे ग्रंथके
भावोंको अक्षुण्ण बनाये रखनेकी दृष्टिको मुख्य रखते हुए, आधुनिक हिन्दी भाषामें परिवर्तन
कराया गया।
अनुवादका संशोधन-कार्य श्री पं० हिम्मतलाल जेठालाल शाह, B.Sc. स्व० श्री
रामजीभाई, ब्र० चन्दुभाई आदिने अपना अमूल्य समय देकर पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी समक्ष
बैठकर किया है। जिसके लिये ट्रस्ट उन सबका आभारी है।
अनुवादक श्री मगनलालजी जैनने बहुत दिन तक सोनगढ़में रहकर यह अनुवाद कर
दिया था, अतः ट्रस्ट उनका भी आभारी है।
पं० श्री टोडरमलजीने प्रथम अधिकारके अन्तमें आगम-अभ्यासकी जो प्रेरणा दी है।
उसका उल्लेख करके यह उपोद्घात पूर्ण करनेमें आता है — ‘‘इस जीवका मुख्य कर्तव्य तो
आगमज्ञान है। उसके होनेसे तत्त्वोंका श्रद्धान होता है, तत्त्वोंका श्रद्धान होनेसे संयम भाव
होता है और उस आगमज्ञानसे आत्मज्ञानकी भी प्राप्ति होती है; तब सहज ही मोक्षकी प्राप्ति
होती है। धर्मके अनेक अंग हैं, उनमें एकध्यान बिना उससे ऊँचा और धर्मका अंग नहीं
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