जाती हैं। इस महत्वपूर्ण प्रकरणमें पंडितजीने जैनोंके अभ्यंतर मिथ्यात्वके निरसनका बहुत
ही रोचक और सिद्धान्तिक विवेचन किया है तथा उभय नयोंकी सापेक्ष दृष्टि स्पष्ट करते
हुए देव-शास्त्र-गुरु संबंधी भक्तिकी अन्यथा प्रवृत्तिका निराकरण किया है। अन्तमें सम्यक्त्व
सन्मुख मिथ्यादृष्टिका स्वरूप तथा क्षयोपशम, विशुद्ध, देशना, प्रायोग्य और करण
कल्पनाओंका निराकरण करते हुए, अनुयोगोंकी सापेक्ष कथनशैलीका समुल्लेख किया है; साथमें
ही आगमाभ्यासकी प्रेरणा भी दी है।
इस अधिकार व इस ग्रंथको पूरा नहीं कर सकें; यह अपना दुर्भाग्य है। किन्तु इस अधिकारमें
जो कुछ कथन किया है वह बहुत ही सरल और सुगम है। उसे हृदयगंम करनेसे सम्यग्दर्शनके
विभिन्न लक्षणोंका समन्वय सहज ही हो जाता है और उनके स्वरूपका भी सामान्य परिचय
प्राप्त होता है।
आंतरिक भद्रताकी महत्ताका द्योतक है।
उठाकर उसका मार्मिक उत्तर दिया है कि, जिससे अध्ययनकर्ताको बादमें कोई संदेहका अवकाश
न रहे। इस ग्रंथमें जो कुछ वस्तुविवेचन है वह अनेक विषयों पर प्रकाश डालनेवाला सुसंबद्ध,
आश्चर्यकारक और जैनदर्शनके मार्मिक रहस्योंको समझानेके लिये एक अद्वितीय चाबीके समान
है, अर्थात् इसमें निर्ग्रन्थ प्रवचनके गहन मार्मिक रहस्योंको ग्रंथकारने जगह-जगह प्रगट किया
है।