Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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अथवा निश्चय-व्यवहारनयोंकी दृष्टिको नहीं समझनेसे खड़ी होती विपरीत कल्पनायें निर्मूल हो
जाती हैं। इस महत्वपूर्ण प्रकरणमें पंडितजीने जैनोंके अभ्यंतर मिथ्यात्वके निरसनका बहुत
ही रोचक और सिद्धान्तिक विवेचन किया है तथा उभय नयोंकी सापेक्ष दृष्टि स्पष्ट करते
हुए देव-शास्त्र-गुरु संबंधी भक्तिकी अन्यथा प्रवृत्तिका निराकरण किया है। अन्तमें सम्यक्त्व
सन्मुख मिथ्यादृष्टिका स्वरूप तथा क्षयोपशम, विशुद्ध, देशना, प्रायोग्य और करण
यह पाँच
लब्धियोंका निर्देश करते हुए यह अधिकार पूर्ण किया है।
आठवें अधिकारमें प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगइन चार
अनुयोगोंका प्रयोजन, स्वरूप, विवेचन शैली दर्शाते हुए उनके संबंधमें होनेवाली दोष
कल्पनाओंका निराकरण करते हुए, अनुयोगोंकी सापेक्ष कथनशैलीका समुल्लेख किया है; साथमें
ही आगमाभ्यासकी प्रेरणा भी दी है।
नववें अधिकारमें मोक्षमार्गका स्वरूप-निरूपणका आरंभ करते हुए मोक्षके कारणभूत
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रइन तीनोंमेंसे मोक्षमार्गके मूलकारणभूत सम्यग्दर्शनका
भी पूरा विवेचन नहीं लिखा जा सका है। खेद है कि अकालिक मृत्यु हो जानेसे ग्रंथकर्ता
इस अधिकार व इस ग्रंथको पूरा नहीं कर सकें; यह अपना दुर्भाग्य है। किन्तु इस अधिकारमें
जो कुछ कथन किया है वह बहुत ही सरल और सुगम है। उसे हृदयगंम करनेसे सम्यग्दर्शनके
विभिन्न लक्षणोंका समन्वय सहज ही हो जाता है और उनके स्वरूपका भी सामान्य परिचय
प्राप्त होता है।
इस तरह इस ग्रंथमें चर्चित सभी विषय अथवा प्रमेय ग्रंथकर्ताके विशाल अध्ययन,
अनुपम प्रतिभा और सिद्धान्तिक अनुभवका सफल परिणाम है और वह ग्रंथकर्ताकी जो
आंतरिक भद्रताकी महत्ताका द्योतक है।
इस ग्रंथकी खास विशेषता यह है कि उसमें गंभीर व दुरूह चर्चाको अति सरल
शब्दोंमें अनेक द्रष्टान्त और युक्तियों द्वारा समझानेका प्रयत्न किया गया है। स्वयंने ही प्रश्न
उठाकर उसका मार्मिक उत्तर दिया है कि, जिससे अध्ययनकर्ताको बादमें कोई संदेहका अवकाश
न रहे। इस ग्रंथमें जो कुछ वस्तुविवेचन है वह अनेक विषयों पर प्रकाश डालनेवाला सुसंबद्ध,
आश्चर्यकारक और जैनदर्शनके मार्मिक रहस्योंको समझानेके लिये एक अद्वितीय चाबीके समान
है, अर्थात् इसमें निर्ग्रन्थ प्रवचनके गहन मार्मिक रहस्योंको ग्रंथकारने जगह-जगह प्रगट किया
है।
अन्यमतनिराकरणके विषयमें लिखनेका हेतु कोई परमतके प्रति द्वेष परिणति करानेका
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