दुःखको तथा मोही जीवके दुःखनिवृत्तिके उपायको निःसार बताकर दुःखनिवृत्तिका सच्चा उपाय
बताया है, अन्य कर्मोंके उदय तथा दर्शनमोह तथा चारित्रमोहके उदयसे होनेवाले दुःखका
व उनकी निवृत्तिका उल्लेख भी किया गया है। एकेन्द्रियादिक जीवोंके दुःखका वर्णन करके
नरकादि चारों गतियोंके घोर कष्ट और उनको दूर करनेका सामान्य-विशेष उपायोंका भी विवेचन
किया गया है। इस तरह उस अधिकारमें कर्मकी अपेक्षासे व गतियोंकी अपेक्षासे जीवके
दुःखका वर्णनकर उससे संपूर्ण निवृत्तिरूप (मोक्ष) सुखको सिद्धकर, उन दुःखोंसे निवृत्तिके
उपायका सामान्य स्वरूप दर्शाया गया है।
प्रवृत्तिका स्वरूप बताया गया है।
द्वारा जैनधर्मकी प्राचीनता तथा महत्ता पुष्ट की है, श्वेताम्बर संप्रदाय संमत अनेक कल्पनाओं
तथा मान्यताओंकी समीक्षा की गई है; ‘अछेरां (आश्चर्य)’का निराकरण करते हुए
केवलीभगवानके आहार-निहारका प्रतिषेध तथा मुनिको वस्त्र-पात्रादि उपकरण रखनेका निषेध
किया है; साथ ही साथ ढूँढ़कमत (स्थानकवासी)की समीक्षा करते हुए मुहपट्टीका निषेध और
प्रतिमाधारी श्रावक नहीं होनेकी मान्यताका तथा मूर्तिपूजाके प्रतिषेधका निराकरण भी किया
गया है।
और सर्पादिककी पूजाका भी निराकरण किया है।
आया है; जिसको पढ़ते ही जैनदृष्टिका जो सत्यस्वरूप है, वह उपस आता है और वस्तुस्थितिको