Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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गोम्मटसार आदि करणानुयोग ग्रंथ इतने गहन हैं कि जिसका पठन-पाठन विशेष बुद्धि
व धारणाशक्तिवाले विद्वानोंको भी कष्टसाध्य है। इस संबंधमें विद्वानोंका अनुभव सह यह
कहना है कि
गोम्मटसारके पठनका कुछ रहस्य तो तब ही प्राप्त होता है जब कि जीव
आजन्म सर्व विषयोंका अभ्यास छोड़ इन्द्रियनिग्रहतासे मात्र एक उसीका अभ्यास रखें।
गोम्मटसारकी भाँति उन जैसे आपके अन्य टीकाग्रंथ भी इतने ही महान हैं। इस परसे इन
ग्रंथोंके भाषाटीकाकार कितने तीक्ष्णबुद्धिके धारक थे, यह स्वयमेव ही झलकता है। आपने
अपने छोटेसे जीवनकालमें इन महानग्रंथोंकी टीका लिखी है, इतना ही नहीं वरन् इतने अल्प
समयमें स्वमत
परमतके सैकड़ों ग्रंथोंके पठन-पाठनके साथ-साथ उनका मर्मस्पर्शी गहन मनन
भी किया था। यह बात आपके इस ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथरूप रचनाके मनन करनेसे
अभ्यासीयोंको स्वयं ही लक्षगत् हो जाय
ऐसा है।
गोम्मटसार आदि पर आपने लिखे भाषाटीकाग्रंथ इतने गहन हैं कि उनका अभ्यास
मात्र विशेष बुद्धिमान कर सकते हैं; परन्तु अल्प बुद्धिवंत जीवोंके लिये लिखा गया यह
सरल देशभाषामय ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ ग्रंथ ऐसा अद्भुत है कि जिसकी रहस्यपूर्ण गंभीरता और
संकलनबुद्धि विषयरचनाको देख तीक्ष्ण बुद्धिवंतकी बुद्धि भी आश्चर्यचकित हो जाती है। इस
ग्रंथका निष्पक्ष
गंभीरतासे अवगाहन करने पर ज्ञात होता है कियह कोई साधारण ग्रंथ नहीं
है, परन्तु एक अति उच्चकोटिका महत्वपूर्ण अनोखा ग्रंथराज है और उसके रचयिता भी अनेक
आगमोंके मर्मज्ञ तथा प्रतिभासंपन्न विद्वान हैं। ग्रंथके विषयोंका प्रतिपादन सर्वको हितकर है
और महान गंभीर आशयपूर्वक हुआ है।
इस ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ ग्रंथमें नौ अधिकार हैं। उसमें नववाँ अधिकार अपूर्ण है,
शेष आठ अधिकार अपने विषय-निरूपणमें परिपूर्ण हैं। पहले अधिकारमें मंगलाचरण करनेके
पश्चात् उसका प्रयोजन बताकर बादमें ग्रंथकी प्रामाणिकताका दिग्दर्शन कराया है। तत्पश्चात्
श्रवण-पठन करनेयोग्य शास्त्रका, वक्ता तथा श्रोताके स्वरूपका सप्रमाण विवेचनकर ‘मोक्षमार्ग-
प्रकाशक’ ग्रंथकी सार्थकता बताई गई है।
दूसरे अधिकारमें संसार अवस्थाके स्वरूपका सामान्य दिग्दर्शन कराया है। उसमें
कर्मबंधननिदान, नूतन बंध विचार, कर्म और जीवका अनादि संबंध, अमूर्तिक आत्माके साथ
मूर्तिक कर्मोंका संबंध, उन कर्मोंके ‘घाति-अघाति’ ऐसे भेद, योग और कषायसे होनेवाले
यथायोग्य कर्मबंधका निर्देश, जड़-पुद्गल परमाणुओंका यथायोग्य कर्मप्रकृतिरूप परिणमनका
उल्लेख करके भावोंसे पूर्वबद्ध कर्मोंकी अवस्थामें होनेवाले परिवर्तनका निर्देश करनेमें आया
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